महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 262 श्लोक 1-15

द्विषष्‍टयधिकद्विशततम (262) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विषष्‍टयधिकद्विशततम श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन्! उस समय बुद्धिमान् तुलाधार के इस प्रकार कहने पर जप करने वालों मे श्रेष्ठ मतिमान् जाजलि ने यह बात कही। जाजलि बोले- वैश्‍यपुत्र! तुम तो सब प्रकार के रस, गन्‍ध, वनस्‍पति, औषधि, मूल और फल आदि बेचा करते हो। महामते! तुम्‍हें यह धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कहाँ से प्राप्‍त हुई? तुम्‍हें यह ज्ञान कैसे सुलभ हुआ? यह सब पूर्णरूप से मुझे बताओ।

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन्! यशस्‍वी ब्राह्मण जाजलि के इस प्रकार पूछने पर धर्म और अर्थ के तत्‍व को जानने वाले तुलाधार वैश्‍य ने उन्‍हें धर्म-सम्‍बन्‍धी सूक्ष्‍म बातों को इस तरह बताना आरम्‍भ किया। तुलाधार बोले- जाजले! जो समस्‍त प्राणियों के लिये हितकारी और सबके प्रति मैत्रीभाव की स्‍थापना करने वाला है, जिसे सब लोग पुरातन धर्म के रूप में जानते हैं, गूढ़ रहस्‍यों सहित उस सनातन धर्म का मुझे ज्ञान हैं। जिसमें किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करना पड़े अथवा कम से कम द्रोह करने से काम चल जाय, ऐसी जो जीवन-वृत्ति है, वही उत्तम धर्म है। जाजले! मैं उसी से जीवन निर्वाह करता हॅू। मैंने दूसरों के द्वारा काटे गये काठ और घास-फूस से यह घर तैयार किया है। अलक्‍तक (वृक्ष विशेष की छाल), पद्मक (पद्मख), तुगंकाष्ठ तथा चन्‍दनादि गन्‍धद्रव्‍य एवं अन्‍य छोटी-बड़ी वस्‍तुओं को मैं दूसरों से खरीदकर बेचता हॅू। विप्रर्षे! मेरे यहाँ मदिरा नहीं बेची जाती, उसे छोडकर बहुत से पीने योग्‍य रसो को दूसरों से खरीदकर बेचता हॅू। माल बेचने में छल कपट एवं असत्‍य से काम नहीं लेता। जाजले! जो सब जीवों का सुह्रद् होता और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा सबके हित में लगा रहता है, वही वास्‍तव में धर्म को जानता है। मैं न किसी से अनुरोध करता हूँ न विरोध ही करता हूँ और न कहीं मेरा द्वेष है, न किसी से कुछ कामना करता हॅू। समस्‍त प्राणियों के प्रति मेरा समभाव हैं। जाजले! यही मेरा व्रत और नियम है, इस पर दृष्टिपात करो। मुने! मेरी तराजू सब मनुष्‍यों के लिये सम है-सबके लिये बराबर तौलती है। विप्रवर! मैं आकाश की भाँति रहकर जगत् के कार्यों की विचित्रता को देखता हुआ दूसरों के कार्यों की न तो प्रशंसा करता हूँ और न निन्‍दा ही। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ जाजले! इस प्रकार तुम मुझे सब लोगों के प्रति समता रखने वाला और मिट्टी के ढेले, पत्‍थर तथा सुवर्ण को समान समझने वाला जानो।

जैसे अन्‍धे, बहरे और उन्‍मत्त (पागल) मनुष्‍य, जिनके नेत्र, कान आदि द्वार देवताओं ने सदा के लिये बंद कर दिये हैं, सदा केवल साँस लेते रहते हैं, मुझ द्रष्‍टा पुरुष की वैसी ही उपमा है। (अर्थात् मैं देखकर भी नहीं देखता, सुनकर भी नहीं सुनता और विषयों की ओर मन नहीं ले जाता, केवल साक्षीरूप से देखता हुआ श्‍वास-प्रश्‍वास मात्र की क्रिया करता रहता हॅू) जैसे वृद्ध, रोगी और दुर्बल मनुष्‍य विषयभोगों की स्‍पृहा नहीं रखते, उसी प्रकार मेरे मन से भी धन और विषय भोगों की इच्‍छा दूर हो गयी है। जब वह पुरुष दूसरे से भयभीत नहीं होता, जब दूसरे प्राणी भी इससे भयभीत नहीं होते तथा जब यह न तो किसी की इच्‍छा रखता है और न किसी से द्वेष ही करता है, तब ब्रह्माभाव को प्राप्‍त हो जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः