महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 272 श्लोक 1-12

दिसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (272) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: दिसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-12 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यज्ञ और तप तो बहुत हैं और वे सब एकमात्र भगवत्‍प्रीति के लिये किये जा सकते हैं; परंतु उनमें से जिस यज्ञ का प्रयोजन केवल धर्म हो, स्‍वर्ग-सुख अथवा धन की प्राप्ति न हो, उसका सम्‍पादन कैसे होता है? भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! पूर्वकाल में उञ्छवृत्ति से जीवन-निर्वाह करने वाले एक ब्राह्मण का यज्ञ के सम्‍बन्‍ध में जैसा वृत्तान्‍त है और जिसे नारद जी ने मुझसे कहा था, वही प्राचीन इतिहास मैं यहाँ तुम्‍हें बता रहा हूँ। नारद जी ने कहा- जहाँ धर्म की ही प्रधानता है, उस उत्तम राष्ट्र विदर्भ में कोई ब्राह्मण ऋषि निवास करता था। वह कटे हुए खेत या खलिहान से अन्‍न के बिखरे हुए दानों को बीन लाता और उसी से जीवन-निर्वाह करता था। एक बार उसने यज्ञ करने का निश्चय किया। जहाँ वह रहता था, वहाँ अन्‍न के नाम पर साँवाँ मिलता था। दाल बनाने के लिये सूर्यपर्णी (जंगली उड़द) मिलती थी और शाक-भाजी के लिये सुवर्चला (ब्राह्मी लता) तथा अन्‍य प्रकार के तिक्‍त एवं रसहीन शाक उपलब्‍ध होते थे; परंतु ब्राह्मण की तपस्‍या से उपर्युक्‍त सभी वस्‍तुएँ सुस्‍वादु हो गयी थीं।

परंतप युधिष्ठिर! उस ब्राह्मण ने वन में तपस्‍या द्वारा सिद्धि लाभ करके समस्‍त प्राणियों में से किसी की भी हिंसा न करते हुए मूल और फलों द्वारा भी स्‍वर्ग की प्राप्ति कराने वाले यज्ञ का अनुष्‍ठान किया। उस ब्राह्मण के एक पत्नि थी, जिसका नाम था पुष्करधारिणी। उसके आचार-विचार परमपवित्र थे। वह व्रत-उपवास करते-करते दुर्बल हो गयी थी। ब्राह्मण का नाम सत्‍य था। यद्यपि वह ब्राह्मणी अपने पति सत्‍य के हिंसा प्रधान यज्ञ की इच्‍छा प्रकट करने पर उसके अनुकूल नहीं होती थी, तो भी ब्राह्मण उसे यज्ञपत्‍नी के स्‍थान पर आग्रहपूर्वक बुला ही लाता था। ब्राह्मणी शाप से डरकर पति के स्‍वभाव का सर्वथा अनुसरण करती थी।

ऐसा कहा जाता है कि वह मोरों की टूटकर गिरी पुरानी पाँखों को जोड़कर उनसे ही अपना शरीर ढँकती थी। होता के आदेश से इच्‍छा न होने पर भी ब्राह्मण-पत्‍नी ने उस यज्ञ का कार्य सम्‍पन्‍न किया। होता का कार्य पर्णाद नाम से प्रसिद्ध एक धर्मज्ञ ऋषि करते थे, जो शुक्राचार्य के वंशज थे। उस वन में सत्‍य का सहवासी एक मृग था, जो वहाँ पास ही रहता था। एक दिन उसने मनुष्‍य की बोली में सत्‍य से कहा- 'ब्राह्मण! तुमने यज्ञ के नाम पर यह दुष्‍कर्म किया है। यदि किया हुआ यज्ञ मन्‍त्र और अंग से हीन हो तो वह यजमान के लिये दुष्‍कर्म ही है। ब्राह्मण देव! तुम मुझे होता को सौंप दो और स्‍वयं निन्‍दारहित होकर स्‍वर्ग लोक में जाओ'। तदनन्‍तर उस यज्ञ में साक्षात् सावित्री ने पधारकर उस ब्राह्मण को मृग की आहुति देने की सलाह दी। ब्राह्मण ने यह कहकर कि मैं अपने सहवासी मृग का वध नहीं कर सकता, सावित्री की आज्ञा मानने से इनकार कर दी। ब्राह्मण से इस प्रकार कोरा जवाब मिल जाने पर सावित्री देवी लौट पड़ीं और यज्ञाग्नि में प्रविष्ट हो गयीं। यज्ञ में कौन-सा दुष्‍कर्म या त्रुटि है- यही देखने की इच्‍छा से वे आयी थीं और फिर रसातल में चली गयीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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