पंचषष्टितम (65) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
महाभारत: शल्य पर्व:पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
महाराज! उस समय अश्वत्थामा की आंखों में आँसू भर आये। वह सिसकता हुआ सम्पूर्ण जगत के राजाधिराज भरत श्रेष्ठ दुर्योधन से इस प्रकार बोला- पुरुष सिंह! निश्चय ही इस मनुष्य लोक में कुछ भी सत्य नहीं है, सभी नाशवान् है, जहाँ तुम्हारे-जैसा राजा धूल में सना हुआ लोट रहा है। राजेन्द्र! तुम पहले सम्पूर्ण जगत के मनुष्यों पर आधिपत्य रखकर सारे भूमण्डल पर हुक्म चलाते थे। वही तुम आज अकेले इस निर्जन वन में कैसे पड़े हुए हो। भरतश्रेष्ठ! न तो मैं दुःशासन को देखता हूँ और न महारथी कर्ण को। अन्य सब सुहृदों का भी मुझे दर्शन नहीं हो रहा है, यह क्या बात है? निश्चय ही काल और लोकों की गति को जानना किसी प्रकार भी कठिन ही है, जिसके अधीन होकर आप धूल में सने हुए पड़े हैं। अहो। ये मूर्धाभिषिक्त राजाओं के आगे चलने वाले शत्रुसंतापी महाराज दुर्योधन तिनकों सहित धूल फाँक रहे हैं। यह काल का उलट फेर तो देखो। नृपश्रेष्ठ! महाराज! कहाँ है आपका वह निर्मल छत्र, कहाँ है व्यजन और कहाँ गयी आपकी वह विशाल सेना? किस कारण से कौन-सा कार्य होगा, इसको समझ लेना निश्चय ही बहुत कठिन है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत के आदरणीय नरेश होकर भी आज तुम इस दशा को पहुँच गये। तुम तो अपनी साम्राज्य-लक्ष्मी के द्वारा इन्द्र की समानता करने वाले थे। आज तुम पर भी यह संकट आया हुआ देख-कर निश्चय हो गया कि किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति सदा स्थिर नहीं देखी जा सकती। राजन! अत्यन्त दुखी हुए अश्वत्थामा की वह बात सुनकर आपके पुत्र राजा दुर्योधन के नेत्रों से शोक के आँसू बहने लगे। उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि समस्त वीरों से यह समयोचित वचन कहा- मित्रो! इस मर्त्यलोक का ऐसा ही धर्म (नियम) है। विधाता ने ही इसका निर्देश किया है, ऐसा कहा जाता है; इसलिये कालक्रम से एक-न-एक दिन सम्पूर्ण प्राणियों के विनाश की घड़ी आ ही जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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