महाभारत शल्य पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-23

पंचषष्टितम (65) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व:पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन की दशा देखकर अश्वत्थामा का विषाद, प्रतिज्ञा और सेनापति के पद पर अभिषेक


संजय कहते हैं- राजन! संदेश वाहकों के मुख से दुर्योधन के मारे जाने का समाचार सुनकर मरने से बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा- जो स्वयं भी तीखे बाण, गदा, तोमर और शक्तियों के प्रहार से विशेष घायल हो चुके थे, तेज चलने वाले घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार हो तुरंत ही युद्ध भूमि में आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि महामनस्वी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन मार गिराया गया है, मानो वन में कोई विशाल शाल वृक्ष वायु के वेग से टूट कर धराशयी हो गया हो। खून से लथपथ हो दुर्योधन पृथ्वी पर पड़ा छटपटा रहा था, मानो जंगल में किसी व्याघ्र ने बहुत बड़े हाथी को मार गिराया हो। रक्त की धारा में डूबा हुआ वह बारंबार करवटें बदल रहा था। जैसे दैवेच्छा से सूर्य का चक्र गिर पड़ा हो, बहुत बड़ी आँधी चलने से समुद्र सूख गया हो, आकाश में पूर्ण चन्‍द्रमण्डल पर कुहरा छा गया हो; वही दशा उस समय दुर्योधन की हुई थी। मतवाले हाथी के समान पराक्रमी और विशाल भुजाओं वाला वह वीर धूल में सन गया था। जैसे धन चाहने वाले भृत्यगण किसी श्रेष्ठ राजा को घेरे रहते हैं, उसी प्रकार भयंकर मांसभक्षी भूतों ने चारों ओर से उसे घेर रखा था। सके मुँह पर भौंहें तनी हुई थीं, आँखें क्रोध से चढ़ी हुई थीं और गिरे हुए व्याघ्र के समान वह नरश्रेष्ठ वीर अमर्ष में भरा हुआ दिखायी देता था। महाधनुर्धर राजा दुर्योधन को पृथ्वी पर पड़ा हुआ देख कृपाचार्य आदि सभी महारथी मोह के वशीभूत हो गये। वे अपने रथों से उतरकर राजा के पास दौड़े गये और दुर्योधन को देखकर सब लोग उसके पास ही जमीन पर बैठ गये।

महाराज! उस समय अश्वत्थामा की आंखों में आँसू भर आये। वह सिसकता हुआ सम्पूर्ण जगत के राजाधिराज भरत श्रेष्ठ दुर्योधन से इस प्रकार बोला- पुरुष सिंह! निश्चय ही इस मनुष्य लोक में कुछ भी सत्य नहीं है, सभी नाशवान्‌ है, जहाँ तुम्हारे-जैसा राजा धूल में सना हुआ लोट रहा है। राजेन्द्र! तुम पहले सम्पूर्ण जगत के मनुष्यों पर आधिपत्य रखकर सारे भूमण्डल पर हुक्म चलाते थे। वही तुम आज अकेले इस निर्जन वन में कैसे पड़े हुए हो। भरतश्रेष्ठ! न तो मैं दुःशासन को देखता हूँ और न महारथी कर्ण को। अन्य सब सुहृदों का भी मुझे दर्शन नहीं हो रहा है, यह क्या बात है? निश्चय ही काल और लोकों की गति को जानना किसी प्रकार भी कठिन ही है, जिसके अधीन होकर आप धूल में सने हुए पड़े हैं। अहो। ये मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं के आगे चलने वाले शत्रुसंतापी महाराज दुर्योधन तिनकों सहित धूल फाँक रहे हैं। यह काल का उलट फेर तो देखो। नृपश्रेष्ठ! महाराज! कहाँ है आपका वह निर्मल छत्र, कहाँ है व्यजन और कहाँ गयी आपकी वह विशाल सेना? किस कारण से कौन-सा कार्य होगा, इसको समझ लेना निश्चय ही बहुत कठिन है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत के आदरणीय नरेश होकर भी आज तुम इस दशा को पहुँच गये। तुम तो अपनी साम्राज्‍य-लक्ष्मी के द्वारा इन्द्र की समानता करने वाले थे। आज तुम पर भी यह संकट आया हुआ देख-कर निश्चय हो गया कि किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति सदा स्थिर नहीं देखी जा सकती।

राजन! अत्यन्त दुखी हुए अश्वत्थामा की वह बात सुनकर आपके पुत्र राजा दुर्योधन के नेत्रों से शोक के आँसू बहने लगे। उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि समस्त वीरों से यह समयोचित वचन कहा- मित्रो! इस मर्त्यलोक का ऐसा ही धर्म (नियम) है। विधाता ने ही इसका निर्देश किया है, ऐसा कहा जाता है; इसलिये कालक्रम से एक-न-एक दिन सम्पूर्ण प्राणियों के विनाश की घड़ी आ ही जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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