एकोनाशीत्यधिकद्विशततम (279) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनाशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! सभी लोग हम लोगों को धन्य-धन्य कहते हैं, परंतु हम लोगों से बढ़कर अत्यन्त दुखी दूसरा कोई मनुष्य नहीं है। कुरुश्रेष्ठ पितामह! देवताओं द्वारा मानव लोक में जन्म पाकर तथा सब लोगों द्वारा सम्मानित होकर भी हमें यहाँ महान् दु:ख प्राप्त हुआ है। कुरुश्रेष्ठ! संसारी मनुष्य जिसे दु:ख कहते हें, उस संन्यास का अवलम्बन हम लोग कब करेंगे? हमें तो इन शरीरों का धारण करना ही दु:ख जान पड़ता है। पितामह! पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच प्राण, मन और बुद्धि- ये सत्रह तत्त्व; काम, क्रोध, लोभ, भय और स्वप्न - ये संसार के पाँच हेतु; शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध - ये पाँच विषय; सत्त्व, रज और तम- ये तीन गुण तथा पाँच भूतों सहित अविद्या, अहंकार और कर्म - ये आठ तत्त्वों के समुदाय सब मिलाकर अड़तीस तत्त्व होते हैं। इन सबसे मुक्त हुए तीक्ष्ण व्रतधारी मुनि पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं। परंतप पितामह! हम लोग भी कब अपना राज्य छोड़कर इसी स्थिति को प्राप्त होंगे। भीष्म जी ने कहा- महाराज! दु:ख अनन्त नहीं हैं। जगत की सभी वस्तुएँ संख्या की सीमा में ही हैं- असंख्य नहीं हैं। पुनर्जन्म भी नश्वरता के लिये विख्यात ही है। तात्पर्य यह कि इस जगत में कोई भी वस्तु अचल या स्थायी नहीं है। तुम जो ऐसा मानते हो कि ऐश्वर्य दोषकारक होता है, क्योंकि वह आसक्ति का हेतु होने के कारण मोक्ष का प्रतिबन्धक है तो तुम्हारी यह मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि तुम सब लोग धर्म के ज्ञाता हो। स्वयं ही उद्योग करके शम, दम आदि साधनों द्वारा कुछ ही काल में मोक्ष प्राप्त कर सकते हो। नरेश्वर! यह जीवात्मा पुण्य और पाप के फल सुख और दु:ख भोगने में स्वतंत्र नहीं है, उन पुण्य और पापों से उत्पन्न संस्काररूप अन्धकार से यह आच्छन्न हो जाता है। जैसे अन्धकारमयी वायु मैनसिल के लाल-पीले चूर्ण में प्रवेश करके उसी के रंग से युक्त हो सम्पूर्ण दिशाओं को रँगती दिखायी देती है, उसी प्रकार स्वभावत; वर्णविहीन यह जीवात्मा तमोमय अज्ञान से आवृत और कर्मफल से रंजित हो वही वर्ण ग्रहण कर अर्थात विभिन्न धर्मों को स्वीकार करके समस्त प्राणियों के शरीरों में घूमता रहता है। जब जीव तत्त्व ज्ञान द्वारा अज्ञान जनित अन्धकार को दूर कर देता है, तब उसके हृदय में सनातन ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है। ऋषि-मुनि कहते हैं कि ब्रह्म की प्राप्ति किसी क्रियात्मक यत्न से साध्य नहीं है। इसके लिये तो देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत को और तुमको उन पुरुषों की उपासना करनी चाहिये, जो जीवन्मुक्त हैं; अत: मैं महर्षियों के समुदाय को नमस्कार करता हूँ। नरेश्वर! इस विषय में एक प्राचीन इतिहास कहा जाता है। उसे एकचित होकर सुनो। भरतनन्दन! पूर्वकाल में वृत्रासुर पराजित और ऐश्वर्य-भ्रष्ट हो गया था। उसका कोई सहायक नहीं रह गया था। देवताओं ने उसका राज्य छीन लिया था। उस दशा में पड़कर भी उस असुर ने जैसी चेष्टा की थी, उसी का इस कथा में वर्णन है। वह शत्रुओं के बीच में रहकर भी आसक्तिशून्य बुद्धि का आश्रय ले शोक नहीं करता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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