महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-14

अशीतितम (80) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन तथा सातवें दिन के युद्ध के लिये कौरव सेना का प्रस्थान


संजय कहते हैं- महाराज! आपस में एक दूसरे को चोट पहुँचाने वाले वे सभी शूरवीर खून से लथपथ हो अपने शिविरों को ही चले गये। यथायोग्य विश्राम करके एक दूसरे की प्रशंसा करते हुए वे लोग पुनः युद्ध करने की इच्छा से तैयार दिखायी देने लगे। राजन! तदनन्तर आपके पुत्र दुर्योधन ने, जिसका शरीर बहते हुए रक्त से भीगा हुआ था, चिन्तामग्न होकर पितामह भीष्म के पास जाकर इस प्रकार पूछा- ‘दादा जी! हमारे सेनाएँ अत्यन्त भयंकर तथा रौद्ररूप धारण करने वाली हैं। उनकी व्यूह रचना भी अच्छे ढंग से की जाती है। इन सेनाओं में ध्वजों की संख्या बहुत अधिक है। तथापि शूरवीर पाण्डव महारथी उनमें प्रवेश करके तुरंत हमारे सैनिकों को विदीर्ण करते, मारते और पीड़ा देकर चले जाते हैं। वे युद्ध में सबको मोहित करके अपनी कीर्ति का विस्तार करते हैं। देखिये न, भीमसेन ने वज्र के समान दुर्भेद्य मकरव्यूह में प्रवेश करके मृत्युदण्ड के समान भयंकर बाणों द्वारा मुझे युद्ध स्थल में क्षत-विक्षत कर दिया है। राजन! भीमसेन को कुपित देखकर मैं भय से व्याकुल हो उठता हूँ। आज मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। सत्यप्रतिज्ञ पितामह! मैं आपकी कृपा से पाण्डवों को मारना और उन पर विजय पाना चाहता हूँ’।

दुर्योधन के ऐसा कहने पर और उसे क्रोध में भरा हुआ जानकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ मनस्वी महात्मा गंगानन्दन भीष्म ने जोर-जोर से हँसते हुए प्रसन्न मन से उसे इस प्रकार उत्तर दिया- ‘राजकुमार! मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर महान् प्रयत्न के साथ पाण्डवों की सेना में प्रवेश करके तुम्हें विजय और सुख देना चाहता हूँ। तुम्हारे लिये अपने आपको छिपाकर नहीं रखता हूँ। जो समरभूमि में पाण्डवों के सहायक हुए हैं, उनमें बहुत-से ये महारथी वीर अत्यन्त भयंकर, परम शौर्यसम्पन्न, शस्त्रविद्या के विद्वान् तथा यशस्वी हैं। इन्होंने थकावट को जीत लिया है और ये हम लोगों पर रोषरूपी विष उगल रहे हैं। ये बल-पराक्रम में प्रचण्ड और तुम्हारे साथ वैर बाँधे हुए हैं। इन्हें सहसा पराजित नहीं किया जा सकता है। राजन्! वीरवर! मैं सम्पूर्ण शरीर से अपने प्राणों की परवा छोड़कर पाण्डवों की सेना के साथ युद्ध करूँगा। महानुभाव! तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिये अब युद्ध में मुझे अपने जीवन की रक्षा भी अत्यन्त आवश्यक नहीं जान पड़ती है। मैं तुम्हारे मनोरथ की सिद्धि के लिये देवताओं सहित समस्त भयंकर दैत्यों को भी दग्ध कर सकता हूँ, फिर शत्रुओं की सेना की तो बात ही क्या है। राजन! मैं उन पाण्डवों से भी युद्ध करूँगा और तुम्हारा सम्पूर्ण प्रिय कार्य सिद्ध करूँगा।’

उस समय भीष्म जी की यह बात सुनते ही दुर्योधन का मन प्रसन्न हो गया। तदनन्तर दुर्योधन ने हर्ष में भरकर सम्पूर्ण राजाओं तथा सारी सेनाओं से कहा- ‘युद्ध के लिये निकलो। राजा दुर्योधन की आज्ञा पाकर सहस्रों हाथी, घोड़े, पैदल तथा रथों से भरी हुई वे सारी सेनाएँ तुरंत रण के लिये प्रस्थित हुई। महाराज! आपकी वे विशाल सेनाएँ नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हो अत्यन्त हर्ष एवं उत्साह में भरी हुई थीं। राजन्! घोड़े, हाथी और पैदलों से युक्त हो रणभूमि में खड़ी हुई उन सेनाओं की बड़ी शोभा होती थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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