महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-5

एकत्रिंश (31) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद

ज्ञान-विज्ञान, भगवान् की व्‍यापकता, अन्‍य देवताओं की उपासना एवं भगवान् को प्रभावसहित न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा का कथन
श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 7

संबंध- छठे अध्‍याय के अंतिम श्लोक में भगवान् ने कहा कि- ‘अंतरात्‍मा को मुझमें लगाकर जो श्रद्धा और प्रेम के साथ मुझको भजता है, वह सब प्रकार के योगीयों में उत्तम योगी है।’ परंतु भगवान् के स्‍वरूप, गुण और प्रभाव को मनुष्‍य जब तक ही जान पाता, तब तक उसके द्वारा अंतरात्‍मा से निरंतर भजन होना बहुत कठिन है; साथ ही भजन का प्रकार जानना भी आवश्‍यक है। इसलिये अब भगवान् अपने गुण, प्रभाव के सहित समग्र स्‍वरूप का तथा अनेक प्रकारों से युक्‍त भक्तियों का वर्णन करने के लिये सातवें अध्‍याय का आरम्‍भ करते हैं और सबसे पहले दो श्लोकों में अर्जुन को उसे सावधानी के साथ सुनने के लिये प्रेरणा करके ज्ञान-विज्ञान के कहने की प्रतिज्ञा करते हैं- श्रीभगवान् बोले- हे पार्थ! अनन्‍यप्रेम से मुझमें आसक्तिचित्त तथा अनन्‍यभाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ[1] तू जिस प्रकार से सम्‍पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्‍त, सबके आत्‍मरूप मुझको संशयरहित जानेगा,[2] उसको सुना। मै तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्त्व ज्ञान को[3] सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।[4]

हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है।[5] और उन यत्न करने वाले योगियो में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है।[6] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा[7] अर्थात मेरी जड प्रकति है और हे महाबाहो इससे दुसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान।[8]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मन और बुद्धि को अचलभाव से भगवान् में स्थिर करके नित्‍य-निरंतर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनका चिंतन करना ही योग में लग जाना है।
  2. भगवान् नित्‍य है, सत्‍य हैं, सनातन हैं; वे सर्वगुणसम्‍पन्‍न, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वव्‍यापी, सर्वाधार और सर्वरूप है तथा स्वंय ही अपनी योग माया से जगत के रूप में प्रकट होते हैं वस्तुतः उनके अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं, व्यक्त, अव्यक्त और सगुण निर्गुण सब वे ही हैं। इस प्रकार उन भगवान् के स्वरूप को निर्भ्रान्ता और असंदिग्धरूप से समझ लेना ही समग्र भगवान को संषयरहित जानना है।
  3. भगवान् के निर्गुण निराकार तत्त्व को जो प्रभाव, माहात्म्य और रहस्यसहित यथार्थ ज्ञान है , उसे ज्ञान कहते हैं; इसी प्रकार उनके सगुण निराकार और दिव्य साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, गुण, महत्त्व और प्रभावसहित यथार्थ ज्ञान का नाम विज्ञान है।
  4. ज्ञान और विज्ञान के द्वारा भगवान् के समग्र स्वरूप की भलीभाँति उपलब्धि हो जाती है। यह विश्व-ब्रहाण्ड तो समग्र रूप का एक क्षुद्र-सा अंशमात्र है। जब मनुष्य भगवान् के समग्र रूप को जान लेता है, तब संभावतः ही उसके लिये कुछ भी जानना बाकी नहीं रह जाता।
  5. भगवत्कृपा के फलस्वरूप् मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी जनम-जनमान्तर के संस्कारों से भोगों में अतयंत आसक्ति और भगवान् में श्रद्धा-प्रेम को अभाव या कमी रहने के कारण अधिकांश मनुष्य तो मार्ग की ओर मुंह ही नहीं करते। जिसके पूर्वसंस्कार शुभ होते हैं, भगवान् महापुरुष और शस्त्रों में जिसकी कुछ श्रद्धा भक्ति होती है तथा पूर्व पुण्यों के मुझसे और भगवतकृपा से जिसको सत्पुरुष का संग प्राप्त हो जाता है हजारों मनुष्यों में से ऐसा कोई बिरला ही इस मार्ग में प्रवृत होकर प्रयत्न करता है।
  6. चेष्टा के तारतम्य से सबका साधन एक सा नहीं होता। अहंकार, ममत्व, कामना, आसक्ति, और संगदोष आदि के कारण नाना प्रकार के विघ्न भी आते रहते हैं। अत: साधन करने वालों में बहुत थोड़े ही पुरुष ऐसे निकलते हैं जिनकी श्रद्धा -भक्ति और साधना पूर्ण होती है और उसके फलस्वरूप इसी जन्म में वे भगवान् का साक्षात्कार कर लेते हैं।
  7. गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान् ने जिस अव्यक्त मूल प्रकृति के तेईस कार्य बतलाये हैं, उसी को यहाँ आठ भेदों में विभक्त बतलाया है। यह अपरा प्रकृति ज्ञेय तथा जड़ होने के कारण ज्ञाता चेतन जीवरूपा परा प्रकृति से सर्वथा भिन्न और निकृष्ट है; यही संसार की हेतुरूप है और इसी के द्वारा जीवन का बन्धन होता है। इसीलिये इसका नाम 'अपरा प्रकृति' है।
  8. समस्त जीवों के शरीर इन्द्रियां, प्राण तथा भोग्यवस्तुएँ और भोगस्थानमय सम्पूर्ण व्यक्त प्रकृति का नाम जगत् है। ऐसा यह जगत रूप जड़ तत्त्व चेतन तत्त्व से व्याप्त है। अतः उसी ने इसे धारण कर रखा है।

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