महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 158 श्लोक 1-18

अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

समस्‍त अनर्थों का कारण लोभ को बताकर उससे होने वाले विभिन्‍न पापों का वर्णन तथा श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण

युधिष्ठिर ने पूछा-भरतश्रेष्‍ठ! मैं यथार्थरूप से यह सुनना चाहता हूँ कि पाप का अधिष्ठान क्‍या है और किससे उसकी प्रवृत्ति होती है?

भीष्‍म जी ने कहा-नरेश्‍वर! पाप का जो अधिष्ठान है, उसे सुनो। एकमात्र लोभ ही पाप का अधिष्ठान है। वह मनुष्‍य को निगल जाने के लिये एक बड़ा ग्राह है। लोभ से ही पाप की प्रवृत्ति होती है। लोभ से ही पाप, अधर्म तथा महान दु:खी की उत्पत्ति होती है। शठता तथा छल-कपट का भी मूल कारण लोभ ही है। इसी के कारण मनुष्‍य पापाचारी हो जाते हैं। लोभ से ही क्रोध प्रकट होता है, लोभ से ही काम की प्रवृत्ति होती है और लोभ से ही माया, मोह, अभिमान ऊदण्‍डता तथा पराधीनता आदि दोष प्रकट होते हैं। असहनशीलता, निर्लज्‍जता, सम्‍पतिनाश, धर्मक्षय, चिन्‍ता और अपयश- ये सब लोभ से ही सम्भव होते हैं। लोभ से ही कृपणता, अत्‍यन्‍त तृष्‍णा, शास्त्रविरुद्ध कर्मों में प्रवृत्ति, कुल और विद्याविषयक अभिमान, रूप और ऐश्‍वर्य का मद, समस्त प्राणियों के प्रति द्रोह, सबका तिरस्कार, सबके प्रति अविश्‍वास तथा कुटिलतापूर्ण बर्ताव होते हैं। पराये धन का अपहरण, परायी स्त्रियों के प्रति बलात्‍कार, वाणी का वेग, मन का वेग, निन्‍दा करने की विशेष प्रवृत्ति, जननेन्द्रिय का वेग, उदर का वेग, मृत्‍यु का भयंकर वेग अर्थात आत्‍महत्‍या, ईर्ष्‍या का प्रबल वेग, मिथ्‍या का दुर्जय वेग, अनिवार्य रसनेन्द्रिय का वेग, दु:सह श्रोत्रेन्द्रिय का वेग, घृणा, अपनी प्रशंसा के लिये बढ़-बढ़कर बातें बनाना, मत्‍सरता, पाप, दुष्‍कर कर्मों में प्रवृत्ति, न करने योग्‍य कार्य कर बैठना–इन सबका कारण भी लोभ ही है।

कुरूश्रेष्ठ! मनुष्‍य जन्‍मकाल में, बाल्‍यावस्‍था में तथा कौमार और यौवनावस्था में जिसके कारण अपने बुरे कर्मों को छोड़ नहीं पाते हैं, जो मनुष्‍य के वृद्ध होने पर भी जीर्ण नहीं होता, वह लोभ ही है। जिस प्रकार गहरे जलवाली बहुत-सी नदियों के मिल जाने से भी समुद्र नहीं भरता है, उसी प्रकार कितने ही प्रदार्थों का लाभ क्यों न हो जाय, लोभ का पेट कभी नहीं भरता है। लोभी मनुष्‍य बहुत-सा लाभ पाकर भी संतुष्‍ट नहीं होता। भोगों से वह कभी तृप्‍त नहीं होता। नरेश्‍वर! न देवताओं, न गन्‍धर्वों, न असुरों, न बड़े-बड़े़ नागों और न सम्पूर्ण भूतगणों द्वारा ही लोभ का स्वरूप यथार्थ-रूप से जाना जाता है। जिसने अपने मन और इन्द्रियों को काबू में कर लिया है, उस पुरुष को चाहिये कि वह मोहसहित लोभ को जीते। कुरुनन्दन! दम्भ, द्रोह, निन्‍दा, चुगली, और मत्सरता–ये सभी दोष अजितात्मा लोभी पुरुषों में ही होते हैं। बहुश्रुत विद्वान बड़े-बड़े़ शास्त्रों को कण्‍ठस्थ कर लेते हैं। सब की शंकाओं का निवारण कर देते हैं; परंतु इस लोभ में फँसकर उनकी बुद्धि मारी जाती है और वे निरन्‍तर क्‍लेश उठाते रहते हैं। वे दोष और क्रोध में फँसकर शिष्टाचार को छोड़ देते हैं और ऊपर से मीठे वचन बोलते हुए भीतर से अत्यन्त कठोर हो जाते हैं। उनकी स्थिती घास-फूंस से ढके हुए कुएँ के समान होती है। वे धर्म के नाम पर संसार को धोखा देने वाले क्षुद्र मनुष्‍य धर्मध्‍वजी होकर (धर्म का ढोंग फैलाकर) जगत् को लूटते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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