महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 1

चतु:सप्ततितम (74) अध्‍याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: चतु:सप्ततितम अध्याय: भाग 1 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अर्जुन की वीरता बतलाकर पुन
द्यू‍त क्रीड़ा के लिये पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध और उनकी स्वीकृति

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन! जब कौरवों को यह मालूम हुआ कि पाण्डवों की रथ और धन के संग्रहसहित खाण्डवप्रस्थ- जाने की आज्ञा मिल गयी, तब उनके मन की अवस्था‍ कैसी हुई?

वैशम्पायन जी कहते हैं- भरतकुलषण जनमेजय! परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को जाने की आज्ञा दे दी, यह जानकर दु:शासन शीघ्र ही अपने भाई भरतश्रेष्ठ दुर्योधन के पास, जो अपने मन्त्रियों (कर्ण एवं शकुनि) के साथ बैठा था, गया और दु:ख से पीड़ित होकर इस प्रकार बोला।

दु:शासन ने कहा- महारथियों! आप लोगों को यह मालूम होना चाहिये कि हमने बड़े दु:ख से जिस धनराशि को प्राप्त किया था, उसे हमारा बूढ़ा बाप नष्ट कर रहा है। उसने सारा धन शत्रुओं के अधीन कर दिया। यह सुनकर दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि, जो बड़े ही अभिमानी थे, पाण्डवों से बदला लेने के लिये परस्पर मिलकर सलाह करने लगे। फिर सब ने बड़ी उतावली के साथ विचित्रवीर्यनन्दन मनीषी राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर मधुर बाणी में कहा।

दुर्योधन बोला- पिताजी! संसार में अर्जुन के समान पराक्रमी धनुर्धर दूसरा कोई नहीं है। वे दो बाहु वाले अर्जुन सहस्र भुजाओं वाले कार्तवीर्य अर्जुन के समान शक्तिशाली हैं। महाराज! अर्जुन ने पहले जो-जो आचिन्त्य साहसपूर्ण कार्य किये हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनिये। राजन्! पहले राजा द्रुपद के नगर में द्रौपदी के स्वयंवर के समय धनुर्धरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने वह पराक्रम कर दिखाया था, जो दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। उस समय महाबली अर्जुन ने सब राजओं को कुपित देख तीखे बाणों के प्रहार से उन्हें जहाँ के तहाँ रोक दिया और स्वयं ही सब पर विजय पायी। कर्ण आदि सभी राजाओं को अपने बल और पराक्रम से युद्ध में जीतकर कुन्तीकुमार अर्जुन ने उस समय शुभलक्षणा द्रौपदी को प्राप्त किया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में भीष्म जी ने सम्पूर्ण क्षत्रिय-समुदाय में अपने बल-पराक्रम से काशिराज की कन्या अम्बिका आदि को प्राप्त किया था।

तदन्दर अर्जुन किसी समय स्वयं तीर्थयात्रा के लिये गये। उस यात्रा में ही उन्होंने नागलोक में पहुँचकर परम सुन्दरी नागकन्या उलूपी को उसके प्रार्थना करने पर विधिपूर्वक पत्नी रूप में ग्रहण किया। फिर क्रमश: अन्य‍ तीर्थों में भ्रमण करते हुए दक्षिण दिशा में जाकर गोदावरी, वेष्णा तथा कावेरी आदि नदियों में स्थान किया। दक्षिण समुद्र में तट पर कुमारी तीर्थ में पहुँचकर अर्जुन ने अत्यन्त शौर्य का परिचय देते हुए ग्राहरूपधारिणी पाँच अप्सराओं का बलपूर्वक उद्धार किया। तत्पश्चात कन्याकुमारी तीर्थ की यात्रा करके वे दक्षिण से लौट आये और अनेक तीर्थों में भ्रमण करते हुए द्वारकापुरी जा पहुँचे। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से अर्जुन ने सुभद्रा को लेकर रथ पर बिठा लिया और अपनी नगरी इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान किया। महाराज! अर्जुन के साहस का और भी वर्णन सुनिये; उन्होंने अग्निदेव को उनके माँगने पर खाण्डवन वन समर्पित किया था। राजन्! उनके द्वारा उपलब्ध होते ही भगवान अग्निदेव ने उस वन को अपना आहार बनाना आरम्भ किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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