सप्तषष्टितम (67) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद
इन्होंने ने ही सर्ग के आरम्भ में सम्पूर्ण लोकों तथा ऋषियों सहित देवताओं की रचना की थी। ये ही प्रलय के अधिष्ठान और मृत्युस्वरूप है। प्रजा की उत्पत्ति और विनाश इन्हीं से होते हैं। ये धर्मश, वरदाता, सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाले तथा धर्मस्वरूप है। ये ही कर्ता, कार्य, आदिदेव तथा स्वयं सर्व-समर्थ है। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की सृष्टि भी पूर्वकाल में इन्हीं के द्वारा हुई हैं। इन जनार्दन ने ही दोनों संध्याओं, दसों दिशाओं, आकाश तथा नियमों की रचना की हैं। महात्मा अविनाशी प्रभु गोविन्द ने ही ऋषियों तथा तपस्या की रचना की है। जगत्स्रष्टा प्रजापति को भी उन्होंने ही उत्पन्न किया है। उन पूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण ने पहले सम्पूर्ण भूतों के अग्रज संकर्षण को प्रकट किया, उनसे सनातन देवाधिदेव नारायण का प्रादुर्भाव हुआ। नारायण की नाभि से कमल प्रकट हुआ। सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति के स्थानभूत उस कमल से पितामह ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए और ब्रह्मा जी से ये सारी प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं। जो सम्पूर्ण भूतों को तथा पर्वतों सहित इस पृथ्वी को धारण करते है, जिन्हें विश्वरूपी अनन्तदेव तथा शेष कहा गया है, उन्हें भी उन परमात्मा ने ही उत्पन्न किया है। ब्राह्मण लोग ध्यान योग के द्वारा इन्हीं परम तेजस्वी वासुदेव का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जलशायी नारायण की कान के मैल से महान असुर मधु का प्राकट्य हुआ था। वह मधु बड़े ही उग्र स्वभाव का तथा क्रूर कर्मा था। उसने ब्रह्मा जी का समादर करते हुए अत्यन्त भयंकर बुद्धि का आश्रय लिया था। इसलिये ब्रह्मा जी का समादर करते हुए भगवान पुरुषोत्तम ने मधु को मार डाला था। तात! मधु का वध करने के कारण ही देवता, दानव, मनुष्य तथा ऋषिगण श्रीजनार्दन को मधुसूदन कहते हैं। वे ही भगवान समय-समय पर वराह, नृसिंह और वामन के रूप में प्रकट हुए हैं। ये श्रीहरि ही समस्त प्राणियों के पिता और माता है। इन कमलनयन भगवान से बढ़कर दूसरा कोई तत्त्व न हुआ है, न ही होगा। राजन्! इन्होंने अपने मुख से ब्राह्मणों, दोनों भुजाओं से क्षत्रियों, जंघा से वैश्यों और चरणों से शूद्रों को उत्पन्न किया है। जो मनुष्य तपस्या में तत्पर हो सयंम-नियम का पालन करते हुए अमावास्या और पूर्णिमा को समस्त देहधारियों के आश्रय, ब्रह्म एवं योगस्वरूप् भगवान केशव की आराधना करता है, वह परम पद को प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर! सम्पूर्ण लोकों के पितामह भगवान श्रीकृष्ण परम तेज है। मुनिजन इन्हें हृषीकेश कहते हैं। इस प्रकार इन भगवान गोविन्द को तुम आचार्य, पिता और गुरु समझो। भगवान श्रीकृष्ण जिनके ऊपर प्रसन्न हो जाये, वह अक्षय लोकों पर विजय पा जाता है। जो मनुष्य भय के समय इन भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेता है और सर्वदा इस स्तुति का पाठ करता है, वह सुखी एवं कल्याण का भागी होता है। जो मानव भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेते हैं, वे कभी मोह में नहीं पड़ते। जनार्दन महान् भय में निमग्न भगवान उन मनुष्यों की सदा रक्षा करते हैं। भरतवंशी नरेश! इस बात को अच्छी तरह समझकर राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण हृदय से योगों के स्वामी, सर्वसमर्थ, जगदीश्वर एवं महात्मा भगवान केशव की शरण ली है। इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व में विश्वोपाख्या विषयक सरसठवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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