महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-22

पंचविंश (25) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवतद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पंचविंश अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

दोनों सेनाओं के प्रधान–प्रधान वीरों एवं शंखध्वनि का वर्णन तथा स्वजनवध के पाप से भयभीत हुए अर्जुन का विषाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 1

धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा- 'हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये। इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए।

आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ। आप-द्रोणाचार्य और पितामाह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा। और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सबके सब युद्ध में चतुर हैं। भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है। इसलिये सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें’। (तब) कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योंधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया। उसके पश्चात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका यह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।

इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने अलौकिक शंख बजाये। श्रीकृष्ण महाराज ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्! (सब ओर से) अलग-अलग शंख बजाये। और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रों के यानि आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिये।

हे राजन्! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- ‘हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये। और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है? तब तक उसे खड़ा रखिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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