एकषष्टयधिकद्विशततम (261) अध्याय: वन पर्व ( व्रीहिद्रौणिक पर्व )
महाभारत: वन पर्व: एकषष्टयधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
देवदूत बोला– महर्षे! तुम्हारी बुद्धि बड़ी उत्तम है। जिस उत्तम स्वर्गीय सुख को दूसरे लोग बहुत बड़ी चीज समझते हैं, वह तुम्हें प्राप्त ही है, फिर भी तुम अनजान से बनकर इसके सम्बंध में विचार करते हो-इसके गुण-दोष की समीक्षा कर रहे हो। मुने! वहाँ पहुँचने के लिये ऊपर को जाया जाता है, इसलिये उसका एक नाम ऊव्वर्ग भी है। वहाँ जाने के लिये जो मार्ग है, वह बहुत उत्तम है। वहां के लोग सदा विमानों पर विचरा करते हैं। मुद्गल! जिन्होंने तपस्या नहीं की है। बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन नहीं किया है तथा जो असत्यवादी एवं नास्तिक हैं, वे उस लोक में नहीं जा पाते हैं। ब्रह्मन्! धर्मात्मा, मन को वश में रखने वाले, शम-दम से सम्पन्न, ईर्ष्यारहित, दान-धर्म परायण तथा युद्ध कला में प्रसिद्ध शूरवीर मनुष्य ही वहाँ सब धामों में श्रेष्ठ इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहरूपी योग को अपनाकर सत्पुरुषों द्वारा सेवित पुण्यवानों के लोकों में जाते हैं। मुद्गल! वहाँ देवता, साध्य, विश्वेदेव, महर्षिगण, याम, धाम, गन्धर्व तथा अप्सरा -इन सब देवसमूहों के अलग-अलग अनेक प्रकाशमान लोक हैं, जो इच्छानुसार प्राप्त होने वाले भोगों से सम्पन्न, तेजस्वी तथा मंगलकारी हैं। स्वर्ग में तैंतीस हजार योजन का सुवर्णमय एक बहुत ऊंचा पर्वत है, जो मेरुगिरि के नाम से विख्यात है। मुद्गल! वहीं देवताओं के नन्दन आदि पवित्र उद्यान तथा पुण्यात्मा पुरुषों के विहार स्थल हैं। वहाँ किसी को भूख-प्यास नहीं लगती, मन में कभी ग्लानि नहीं होती, गर्मी और जाड़े का कष्ट भी नहीं होता और न कोई भय ही होता है। वहाँ कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो घृणा करने योग्य एवं अशुभ हो। वहाँ सब ओर मनोरम सुगन्ध, सुखदायक स्पर्श तथा कानों और मन को प्रिय लगने वाले मधुर शब्द सुनने में आते हैं। मुने! स्वर्गलोक में न शोक होता है, न बुढ़ापा। वहाँ थकावट तथा करुणाजनक विलाप भी श्रवणगोचर नहीं होते हैं। महर्षे! स्वर्गलोक ऐसा ही है। अपने सत्कर्मों के फलरूप से ही उनकी प्राप्ति होती है। मनुष्य वहाँ अपने किये हुए पुण्य कर्मों से ही रह पाते है। मुद्गल! स्वर्गवासियों के शरीर में तेजस्व तत्व की प्रधानता होती है। वे शरीर पुण्य कर्मों से उपलब्ध होता है। माता-पिता के रजोवीर्य से उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। उन शरीरों में कभी पसीना नहीं निकलता, दुर्गन्ध नहीं आती तथा मल-मूत्र का भी अभाव होता है। मुने! उनके कपड़ों में कभी मैल नहीं बैठती है। स्वर्गवासियों की जो (दिव्यकुसुमों की) मालाएं होती हैं, वे कभी कुम्हलाती नहीं है। उनसे निरन्तर दिव्य सुगन्ध फैलती रहती है तथा वे देखने में भी बड़ी मनोरम होती हैं। ब्रह्मन्! स्वर्ग के सभी निवासी ऐसे ही विमानों से सम्पन्न होते हैं। महामुने! जो अपने सत्कर्मों द्वारा स्वर्गलोक पर विजय पा चुके हैं, वे वहाँ बड़े सुख से जीवन बिताते हैं। उनमें किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं होती, वे कभी शोक तथा थकावट का अनुभव नहीं करते एवं मोह तथा मात्सर्य (द्वेषभाव) से सदा दूर रहते हैं। मुनिश्रेष्ठ! देवताओं के जो पूर्वोक्त प्रकार के लोक हैं, उन सबके ऊपर अन्य कितने ही विविध गुणसम्पन्न दिव्य लोक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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