महाभारत वन पर्व अध्याय 215 श्लोक 1-15

पच्‍चदशधिकद्विशततम (215) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पच्‍चदशधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


धर्मव्‍याध का कौशिक ब्राह्मण को माता-पिता की सेवा का उपदेश देकर अपने पूर्वजन्‍म की कथा कहते हुए व्‍याध होने का कारण बताना

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार धर्मात्‍मा व्‍याध ने कौशिक ब्राह्मण को अपने माता-पितारूप दोनों गुरुजनों का दर्शन कराकर पुन: उससे इस प्रकार कहा- ‘ब्राह्मण! माता-पिता की सेवा ही मेरी तपस्‍या है। इस तपस्‍या का प्रभाव देखिये। मुझे दिव्‍यदृष्टि प्राप्‍त हो गयी है, जिसके कारण उस पतिव्रता देवी ने, जो सदा पति की सेवा में संलग्न रहने वाली, जितेन्द्रिय तथा सत्‍य एवं सदाचार में तत्‍पर है, आपको यह कहकर यहाँ भेजा था कि ‘आप मिथिलापुरी को जाइये। वहाँ एक व्‍याध रहता है। वह आपको सब धर्मों का उपदेश करेगा।'

ब्राह्मण बोला- उत्तम व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ व्‍याध! उस सत्‍यपरायण और सुशीला पतिव्रता देवी के वचनों का स्‍मरण करके मुझे यह दृढ़ विश्‍वास हो गया है कि तुम उत्तम गुणों से सम्‍पन्न हो।

धर्मव्याध ने कहा- द्विजश्रेष्ठ प्रभो! उस पतिव्रता देवी ने पहले आप से मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह सब ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि उसने पातिव्रत्‍य के प्रभाव से सब कुछ प्रत्‍यक्ष देखा है। विप्रवर! आप पर अनुग्रह करने के विचार से ही मैंने ये सब बातें आपके सामने रखी हैं। तात! आप मेरी बात सुनिये। ब्रह्मन्! आपके लिये जो हितकर है, वही बात बताऊंगा। द्विजश्रेष्‍ठ! आपने माता-पिता की उपेक्षा की है। वेदाध्‍ययन करने के लिये उन दोनों की आज्ञा लिये बिना ही आप घर से निकल पड़े हैं। अनिन्‍द्य ब्राह्मण! यह आपके द्वारा अनुचित कार्य हुआ है। आपके शोक से वे दोनों बूढ़े एवं तपस्‍वी माता-पिता अन्‍धे हो गये हैं। आप उन्‍हें प्रसन्न करने के लिये घर जाइये। ऐसा करने से आपका धर्म नष्‍ट नहीं होगा। आप तपस्‍वी, महात्‍मा तथा निरन्‍तर धर्म में तत्‍पर रहने वाले हैं। परंतु माता-पिता को संतुष्‍ट न करने के कारण आपका यह सारा धर्म और व्रत व्‍यर्थ हो गया है। अत: शीघ्र जाकर उन दोनों को प्रसन्न कीजिये। ब्रह्मन! मेरी बात पर श्रद्धा कीजिये। इसके विपरीत कुछ न कीजिये। ब्रह्मर्षे! आप अपने घर जाइये और माता-पिता की सेवा कीजिये। यह मैं आपके लिये परम कल्‍याण की बात बता रहा हूँ।

ब्राह्मण बोला- धर्म, सदाचार और गुणों से सम्‍पन्न व्‍याध! आपका भला हो। आपने यह जो कुछ बताया है, सब नि:संदेह सत्‍य है। मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ।

धर्मव्‍याध ने कहा- विप्रवर! आप देवताओं के समान हैं; क्‍योंकि आपने उस धर्म में मन लगाया है, जो पुरातन, सनातन, दिव्‍य तथा मन को जीतने वाले पुरुषों के लिये दुर्लभ है। द्विजश्रेष्‍ठ! आप माता-पिता के पास जाकर आलस्‍यरहित हो शीघ्र ही उनकी सेवा में लग जाइये। मैं इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं देखता।

ब्राह्मण बोला- नरश्रेष्‍ठ! मेरा बड़ा भाग्‍य था, जो यहाँ आया और सौभाग्‍य से ही मुझे आपका संग प्राप्‍त हो गया। संसार में आप-जैसे धर्म का मार्ग दिखाने वाले मनुष्‍य दुर्लभ हैं। हजारों मनुष्‍यों में से कोई एक भी धर्म के तत्‍व को जानने वाला है या नहीं-यह निश्‍चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। पुरुषर्षभ! आपका कल्याण हो। आज में आपके सत्य के कारण आप पर बहुत प्रसन्न हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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