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महाभारत: सभा पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
मय द्वारा निर्मित सभा भवन में धर्मराज युधिष्ठिर का प्रवेश तथा सभा में स्थित महर्षियों और राजाओं आदि का वर्णन
- वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! उस श्रेष्ठ सभा भवन का निर्माण करके मयासुर ने अर्जुन से कहा। मयासुर बोला - सव्यसाचिन्! यह है आपकी सभा, इसमें एक ध्वजा होगी। उसके अग्रभाग में भूतों का महापराक्रमी किंकर नामक गण निवास करेगा। जिस समय तुम्हारे धनुष की टंकार ध्वनि होगी, उस समय उस ध्वनि के साथ ये भूत भी मेघों के समान गर्जना करेंगे।
- यह जो सूर्य के समान तेजस्वी अग्निदेव का उत्तम रथ है और ये जो श्वेत वर्ण वाले दिव्य एवं बलवान अश्वरत्न हैं तथा यह जो वानरचिह्न से उपलक्षित ध्वज है, इन सबका निर्माण माया से ही हुआ है। यह ध्वज वृक्षों में कहीं अटकता नहीं हैं तथा अग्नि की लपटों के समान सदा ऊपर की ओर ही उठा रहता है।
- आपका यह वानरचिह्नित ध्वज अनेक रंग का दिखायी देता है। आप युद्ध में उत्कट एवं स्थिर ध्वज को कभी झुकता नहीं देखेंगे।
- ऐसा कहकर मयासुर ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उनसे विदा लेकर[1] चला गया।
- वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने घी और मधु मिलायी हुई खीर, खिचड़ी, जीवन्तिका के साग, सब प्रकार के हविष्य, भाँति-भाँति के भक्ष्य तथा फल, ईख आदि नाना प्रकार के चोष्य और बहुत अधिक पेय[2] आदि सामग्रियों द्वारा दस हजार ब्राह्मणें को भोजन कराकर उस सभाभवन में प्रवेश किया। (1-3)
- उन्होंने नये-नये वस्त्र और छोटे-बडे़ अनेक प्रकार के हार आदि के उपहार देकर अनेक दिशाओं से आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त किया। (4)
- भारत! तत्पश्चात उन्होंने प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक हजार गौएँ दी। उस समय वहाँ ब्राह्मणों के पुण्याहवाचन का गम्भीर घोष मानो स्वर्गलोक तक गूँज उठा। (5)
- कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने अनेक प्रकार के बाजे तथा भाँति-भाँति के दिव्य सुगन्धित पदार्थों द्वारा उस भवन में देवताओं की स्थापना एवं पूजा की। इसके बाद वे उस भवन में प्रविष्ट हुए। (6)
- वहाँ धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर की सेवा में कितने ही मल्ल[3], नट, झल्ल[4], सूत और वैतालिक उपस्थित हुए। (7)
- इस प्रकार पूजन का कार्य सम्पन्न करके भाइयों सहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर स्वर्ग में इन्द्र की भाँति उस रमणीय सभा में आनन्दपूर्वक रहने लगे। (8)
- उस सभा में ऋषि तथा विभिन्न देशों से आये हुए नरेश पाण्डवों के साथ बैठा करते थे। (9)
- असित, देवल, सत्य, सर्पिर्माली, महाशिरा, अर्वावसु, सुमित्र, मैत्रेय, शुनक, बलि, बक, दाल्भ्य, स्थूलशिरा, कृष्ण द्वैपायन, शुकदेव, व्यास जी के शिष्य सुमन्तु, जैमिनि, पैल तथा हमलोग, तित्तिर, याज्ञवल्क्य, पुत्र सहित लोमहर्षण, अप्सुहोम्य, धौम्य, अणीमाण्डव्य, कौशिक, दामोष्णीष, त्रैबलि, पर्णाद, घटनाजुक, मौञ्जायन, वायुभक्ष, पाराशर्य, सारिक, बलिवाक, सिनीवाक, सत्यपाल, कृतश्रम, जातूकर्ण, शिखावान, आलम्ब, पारिजातक, महाभाग पर्वत, महामुनि मार्कण्डेय, पवित्रपाणि, सावर्ण, भालुकि, गालव, जंघाबन्धु, रैभ्य, कोपवेग, भृगु, हरिबभ्रु, कौण्डिन्य, बभ्रुमाली, सनातन, काक्षीवान, औशिज, नाचिकेत, गौतम, पैंगय, वराह, शुनक (द्वितीय), महातपस्वी शाणिडल्य, कुक्कुर, वेणुजंघ, कालाप तथा कठ आदि धर्मज्ञ, जितात्मा और जितेन्द्रिय मुनि उस सभा में विराजते थे। (1-18)
- ये तथा और भी वेद-वेदांगों के पारंगत बहुत से मुनि श्रेष्ठ उस सभा में महात्मा युधिष्ठिर के पास बैठा करते थे। (19)
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