महाभारत वन पर्व अध्याय 181 श्लोक 1-20

एकाशीत्यधिकशततम (181) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर द्वारा अपने प्रश्नों का उचित उत्तर पाकर संतुष्ट हुए सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ देना तथा युधिष्ठिर के साथ वार्तालाप करने के प्रभाव से सर्पयोनि से मुक्त होकर स्वर्ग जाना

युधिष्ठिर ने पूछा- तुम सम्पूर्ण वेद-वेदांग के पारगामी हो। लोक में तुम्हारी ऐसी ही ख्याति है। बताओ, किस कर्म के आचरण से सर्वोत्तम गति प्राप्त हो सकती है?

सर्प ने कहा- भारत! इस विषय में मेरा विचार यह है कि मनुष्य सत्पात्र को दान देने से, सत्य और प्रिय वचन बोलने से तथा अहिंसा-धर्म में तत्पर रहने से स्वर्ग (उत्तम गति) पा सकता है।

युधिष्ठिर ने पूछा- नागराज! दान और सत्य में किसका पलड़ा भारी देखा जाता है? अहिंसा और प्रियभाषण-इनमें से किसका महत्त्व अधिक है और किसका कम? यह बताओ।

सर्प ने कहा- महाराज! दान, सत्य-तत्त्व, अहिंसा और प्रियभाषण-इनकी गुरुता और लघुता कार्य की महत्ता के अनुसार देखी जाती है। राजेन्द्र! किसी दान से सत्य का ही महत्त्व बढ़ जाता है और कोई-कोई दान ही सत्यभाषण से अधिक महत्त्व रखता है। महान् धनुर्धर भूपाल! उसी प्रकार कहीं तो प्रिय वचन की अपेक्षा अहिंसा का गौरव अधिक देखा जाता है और कहीं अहिंसा से भी बढ़कर प्रियभाषण का महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। राजन्! इस प्रकार इनके गौरव-लाघव का निश्चय कार्य की अपेक्षा से ही होता है। अब और जो कुछ भी प्रश्न तुम्हें अभीष्ट हो, वह पूछो। मैं यथासम्भव उतर देता हूँ।

युधिष्ठिर ने पूछा- सर्प! मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति और कर्मों का निश्चयरूप से मिलने वाला फल किस प्रकार देखने में आता है एवं देहाभिमान से रहित पुरुष की गति किस प्रकार होती है? इन विषयों को मुझसे भलीभाँति कहिये।

सर्प ने कहा- राजन्! अपने-अपने कर्मों के अनुसार जीवों की तीन प्रकार की गतियां देखी जाती हैं- स्वर्गलोक की प्राप्ति, मनुष्य योनि में जन्म लेना और पशु-पक्षी आदि योनियों में (तथा नरकों) उत्पन्न होना।[1] बस, ये तीन ही योनियां हैं। इनमें से जो जीव मनुष्य-योनि में उत्पन्न होता है, पर यदि आलस्य और प्रमाद का त्याग करके अहिंसा का पालन करते हुए दान आदि शुभ कर्म करता है, तो उसे इन पुण्य कर्मों के कारण स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। राजेन्द्र! इसके विपरीत कारण उपस्थित होने पर मनुष्ययोनि में तथा पशु-पक्षियों आदि की योनि में जन्म लेना पड़ता है। तात्! पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म लेने का जो विशेष करण है, उसे भी यहाँ बतलाया जाता है। जो काम, क्रोध, लोभ और हिंसा में तत्पर होकर मानवता से भ्रष्ट हो जाता है, अपनी मनुष्य होने की योग्यता को भी खो देता है, वही पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म पाता है। फिर मनुष्य जन्म की प्राप्ति के लिये उसका तिर्यकयोनि से उद्धार होता है। गौओं तथा अश्वों को भी उस योनि से छुटकारा मिलकर देवत्व की प्राप्ति होती है, यह बात देखी जाती है।

तात! प्रयोजनवश वही यह जीव इन्हीं तीन गतियों में भटकता रहता है। कर्मफल को चाहने वाला देहाभिमानी सुख का उपभोग करता है। किंतु तात! जो कर्मफल में आसक्त नहीं है, वह प्रजाजनों के पालन की भावना वाला द्विज अपने आत्मा को नित्य परब्रह्म परमात्मा में भलीभाँति स्थित कर देता है।

युधिष्ठिर ने पूछा- सर्प! शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-इनका आधार क्या है? आप शांतचित्त होकर इसे यथार्थ रूप से बताइये। महामते! पन्नगश्रेष्ठ! मन विषयों का एक ही साथ ग्रहण क्यों नहीं करता? इन उपर्युक्त सब बातों को बताइये।

सर्प ने कहा- आयुष्मन्! स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का आश्रय लेने वाला और इन्द्रियों से युक्त जो आत्मा नामक द्रव्य है, वही विधिपूर्वक नाना प्रकार के भोगों को भोगता है। भरतश्रेष्ठ! ज्ञान, बुद्धि और मन-ये ही शरीर में उसके करण समझो। तात! पाँचों विषयों के आधारभूत पंचभूतों से बने हुए शरीर में स्थित जीवात्मा इस शरीर में स्थित हुआ ही मन के द्वारा क्रमशः इन पांचों विषयों का उपभोग करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ये ही क्रमश: ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति के नाम से प्रसिद्ध हैं।

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