तृतीय (3) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- "महाराज! नरेश्वर! यदि अन्य तीन वर्णों के लिये ब्राह्मण प्राप्त करना अत्यंत कठिन है तो क्षत्रिय कुल में उत्पन्न महात्मा विश्वामित्र ने कैसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया? धर्मात्मन्! नरश्रेष्ठ पितामह! इस बात को मैं यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ, आप मुझे बताईये। पितामह! अमित पराक्रमी विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के प्रभाव से महात्मा वसिष्ठ के सौ पुत्रों को तत्काल नष्ट कर दिया था। उन्होंने क्रोध के आवेश में आकर बहुत-से प्रचण्ड तेजस्वी यातुधान एवं राक्षस रच डाले थे, जो काल और यमराज के समान भयानक थे। इतना ही नहीं, इस मनुष्य-लोक में उन्होंने उस महान कुशिक वंश को स्थापित किया जो अब सैकड़ों ब्रह्मर्षियों से व्याप्त और विद्वान ब्राह्मणों से प्रशंसित है। ऋचीक (अजीगर्त) का महतपस्वी पुत्र शुन:शेप एक यज्ञ में यज्ञ-पशु बनाकर लाया गया था, किेंतु विश्वामित्र जी ने उस महायज्ञ से उसको छुटकारा दिला दिया। हरिश्चंद्र के उस यज्ञ में अपने तेज से देवताओं को संतुष्ट करके विश्वामित्र ने शुन:शेप को छुड़ाया था, इसलिये वह बुद्धिमान विश्वामित्र के पुत्रभाव को प्राप्त हो गया। नरेश्वर! शुन:शेप देवताओं के देने से देवरात नाम से प्रसिद्ध हो विश्वामित्र का ज्येष्ठ पुत्र हुआ। उसके छोटे भाई विश्वामित्र के अन्य पचास पुत्र उसे बड़ा मानकर प्रणाम नहीं करते थे, इसलिये विश्वामित्र के शाप से वे सब-के-सब चाण्डाल हो गये। जिस इक्ष्वाकुवंशी त्रिशंकु को भाई-बन्धुओं ने त्याग दिया था और जब वह स्वर्ग से भ्रष्ट होकर दक्षिण दिशा में नीचे सिर किये लटक रहा था, तब विश्वामित्र जी ने ही उसे प्रेमपूर्वक स्वर्ग लोक में पहुँचाया था। देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों और देवताओं से सेवित, पवित्र, मंगलकारिणी एवं विशाल कौशिकी नदी विश्वामित्र के ही प्रभाव से प्रकट हुई। पांच चोटी वाली लोकप्रिय रम्भा नामक अप्सरा विश्वामित्र जी की तपस्या में विघ्न डालने गयी थी, जो उनके शाप से पत्थर हो गयी। पूर्वकाल में विश्वामित्र के ही भय से अपने शरीर को रस्सी से बांधकर श्रीमान वसिष्ठ जी अपने-अपको एक नदी के जल में डुबो रहे थे, परंतु उस नदी के द्वारा पाशरहित (बन्धनमुक्त) हो पुन: उपर उठ आये। महात्मा वसिष्ठ के उस महान कर्म से विख्यात हो वह पवित्र नदी उसी दिन से 'विपाशा' कहलाने लगी। वाणी द्वारा स्तुति करने पर उन विश्वामित्र पर सामर्थ्यशाली भगवान इन्द्र प्रसन्न हो गये थे और उनको शाप मुक्त कर दिया। जो विश्वामित्र उत्तानपाद के पुत्र ध्रव तथा ब्रह्मर्षियों (सप्तर्षियों) के बीच में उत्तर दिशा के आकाश का आश्रय ले तारा रूप से सदा प्रकाशित होते रहते हैं, वे क्षत्रिय ही रहे हैं। कुरुनन्दन! उनके ये तथा और भी बहुत-से अद्भभूत कर्म हैं, उन्हें याद करके मेरे हृदय में यह जानने का कौतूहल उत्पन्न हुआ है कि वे ब्राह्मण कैसे हो गये? भरतश्रेष्ठ! यह क्या बात है? इसे ठीक-ठीक बताइये। विश्वामित्र जी दूसरा शरीर धारण किये बिना ही कैसे ब्राह्मण हो गये? तात! यह सब आप यथार्थ रूप से बताने की कृपा करें। जैसे मतंग को तपस्या करने से भी ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हुआ, वैसी ही बात विश्वामित्र के लिये क्यों नहीं हुई? यह मुझे बताइये। भरतश्रेष्ठ! मतंग को जो ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हुआ, वह उचित ही था, क्योंकि उसका जन्म चाण्डाल की योनि में हुआ था, परंतु विश्वामित्र ने कैसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में विश्वामित्र का उपाख्यान विषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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