द्वाविंश (22) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
तदनन्तर एक दिन पांडव अपनी माता के लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगे- "हाय! मेरी माता कुन्ती अत्यन्त दुबली हो गयी होंगी। वे उन बूढे़ पति-पत्नि गांधारी और धृतराष्ट्र की सेवा कैसे निभाती होंगी? ‘शिकारी जन्तुओं से भरे हुए उस जंगल में आश्रयहीन एवं पुत्ररहित राजा धृतराष्ट्र अपनी पत्नी के साथ अकेले कैसे रहते होंगे? जिनके बन्धु-बान्धव मारे गये हैं, वे महाभागा गांधारी देवी, उस निर्जन वन में अपने अन्धे और बूढे़ पति का अनुसरण कैसे करती होंगी?" इस प्रकार बात करते-करते उनके मन में बड़ी उत्कण्ठा हो गयी और उन्होंने धृतराष्ट्र के दर्शन की इच्छा से वन में जाने का विचार कर लिया। उस समय सहदेव ने राजा युधिष्ठिर को प्रणाम करके कहा- "भैया, मुझे ऐसा दिखायी देता है कि आपका हृदय तपोवन में जाने के लिये उत्सुक है, यह बड़े हर्ष की बात है। राजेन्द्र! मैं आपके गौरव का ख्याल करके संकोचवश वहाँ जाने की बात स्पष्ट रूप से कह नहीं पाता था। आज सौभाग्यवश वह अवसर अपने आप उपस्थित हो गया। मेरा अहोभाग्य कि मैं तपस्या में लगी हुई माता कुन्ती का दर्शन करूँगा। उनके सिर के बाल जटारूप में परिणत हो गये होंगे! वे तपस्विनी बूढ़ी माता कुश और काश के आसनों पर शयन करने के कारण क्षत-विक्षत हो रही होंगी। जो महलों और अट्टालिकाओं में पलकर बड़ी हुई हैं, अत्यन्त सुख की भागिनी रही हैं, वे ही माता कुन्ती अब थककर अत्यन्त दुःख उठाती होंगी! मुझे कब उनके दर्शन होंगे? भरतश्रेष्ठ! मनुष्यों की गतियाँ निश्चय ही अनित्य होती हैं, जिनमें पड़कर राजकुमारी कुन्ती सुखों से वंचित हो वन में निवास करती हैं।" सहदेव की बात सुनकर नारियों में श्रेष्ठ महारानी द्रौपदी राजा का सत्कार करके उन्हें प्रसन्न करती हुई बोलीं- "नरेश्वर! मैं अपनी सास कुन्ती देवी का दर्शन कब करूँगी? क्या वे अब तक जीवित होंगी? यदि वे जीवित हों तो आज उनका दर्शन पाकर मुझे असीम प्रसन्नता होगी। राजेन्द्र! आपकी बुद्धि सदा ऐसी ही बनी रहे। आपका मन धर्म में ही रमता रहे; क्योंकि आज आप हम लोगों को माता कुन्ती का दर्शन कराकर परम कल्याण की भागिनी बनायेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज