महाभारत वन पर्व अध्याय 150 श्लोक 1-22

पंचाशदधिकशततम (150) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


हनुमान जी द्वारा भीमसेन को अपने विशाल रूप का प्रदर्शन और चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन

भीमसेन ने कहा- 'कपिप्रवर! मैं आपका वह पूर्वरूप देखे बिना किसी प्रकार नहीं जाऊँगा। यदि मैं आपका कृपापात्र होऊँ; तो आप स्वयं ही अपने आपको मेरे सामने प्रकट कर दीजिये।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीमसेन के ऐसा कहने पर हनुमान जी ने मुसकराकर उन्हें अपना वह रूप दिखाया, जो उन्होंने समुद्र-लंघन के समय धारण किया था। उन्होंने अपने भाई का प्रिय करने की इच्छा से अत्यन्त विशाल शरीर धारण किया। उनका शरीर लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई में बहुत बड़ा हो गया। वे अमित तेजस्वी वानर वीर वृक्षों सहित समूचे कदलीवन को आच्छादित करते हुए गन्धमादन पर्वत की ऊँचाई को भी लांघकर वहाँ खड़े हो गये। उनका वह उन्नत विशाल शरीर दूसरे पर्वत के समान प्रतीत होता था। लाल आंखों, तीखी दाढ़ों और टेढ़ी भौंहों से युक्त उनका मुख था। वे वानर वीर अपनी विशाल पूंछ को हिलाते हुए सम्पूर्ण दिशाओं को घेरकर खड़े थे। भाई के उस विराट् रूप को देखकर कौरवन्दन भीम को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके शरीर में बार-बार हर्ष से रोमांच होने लगा। हनुमान जी तेज में सूर्य के समान दिखायी देते थे। उनका शरीर सुवर्णमय मेरु पर्वत के समान था और उनकी प्रभा से सारा आकाशमण्डल प्रज्वलित-सा जान पड़ता था। उनकी ओर देखकर भीमसेन ने दोनों आंखे बंद कर लीं।

तब हनुमान जी उनसे मुसकराते हुए से बोले- 'अनघ! तुम यहाँ मेरे इतने ही बड़े रूप को देख सकते हो, परंतु मैं इससे भी बड़ा हो सकता हूँ। मेरे मन में जितने बड़े स्वरूप की भावना होती है, उतना ही मैं बढ़ सकता हूँ। भयानक शत्रुओं के समीप मेरी मूर्ति अत्यन्त ओज के साथ बढ़ती है'।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! हनुमान जी का वह विन्ध्य पर्वत के समान अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर वायुपुत्र भीमसेन घबरा गये। उनके शरीर में रोंगटे खड़े होने लगे। उस समय उदारहृदय भीम ने हाथ जोड़कर अपने सामने खड़े हुए हनुमान जी से कहा- 'प्रभो! आपके इस शरीर का विशाल प्रमाण प्रत्यक्ष देख लिया। महापराक्रमी वीर! अब आप स्वयं ही अपने शरीर को समेट लीजिये। आप तो सूर्य के समान उदित हो रहे हैं। मैं आपकी ओर देख नहीं सकता। आप अप्रमेय तथा दुर्धर्ष मैनाक पर्वत के समान खड़े हैं। वीर! आज मेरे मन में इस बात को लेकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आपके निकट रहते हुए भी भगवान् श्रीराम ने स्वयं ही रावण का सामना किया। आप तो अकेले ही अपने बाहुबल का आश्रय लेकर योद्धाओं और वाहनों सहित समूची लंका को अनायास नष्ट कर सकते थे। मारुतनन्दन! आपके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। समर-भूमि में अपने सैनिकों सहित रावण अकेले आपका ही सामना करने में समर्थ नहीं था'।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीम के ऐसा कहने पर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने स्नेहयुक्त गम्भीर वाणी में इस प्रकार उत्‍तर दिया। हनुमान जी बोले- भारत! महाबाहु भीमसेन! तुम जैसा कहते हो, ठीक ही है। वह अधम राक्षस वास्तव में मेरा सामना नहीं कर सकता था। किंतु सम्पूर्ण लोकों को कांटे के समान कष्ट देने वाला रावण यदि मेरे ही हाथों मारा जाता, तो भगवान् श्रीरामचन्द्र जी की कीर्ति नष्ट हो जाती। इसीलिये मैंने उसकी उपेक्षा कर दी। वीरवर श्रीरामचन्द्र जी सेनासहित उस अधम राक्षस का वध करने के सीताजी को अपनी अयोध्यापुरी में ले आये। इससे मनुष्यों में उनकी कीर्ति का भी विस्तार हुआ। अच्छा, महाप्राज्ञ! अब तुम अपने भाई के प्रिय एवं हित में तत्पर रहकर वायुदेवता से सुरक्षित हो क्लेशरहित मार्ग से कुशलपूर्वक जाओ। कुरुश्रेष्ठ! यह मार्ग सौगन्धिक वन को जाता है। इससे जाने पर तुम्हें कुबेर का बगीचा दिखायी देगा, जो यक्षों तथा राक्षसों से सुरक्षित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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