महाभारत वन पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-16

अष्टषष्टितम (68) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


विदर्भराज का नल-दमयन्ती की खोज के लिये ब्राह्मणों को भेजना, सुदेव ब्राह्मण का चेदिराज के भवन में जाकर मन-ही-मन दमयन्ती के गुणों का चिन्तन और उससे भेंट करना

बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन्! राज्य का अपहरण हो जाने पर जब नल पत्नीसहित वन में चले गये, तब विदर्भ नरेश भीम ने नल का पता लगाने के लिये बहुत-से ब्राह्मणों को इधर-उधर भेजा। राजा भीम ने प्रचुर धन देकर ब्राह्मणों को यह संदेश दिया- ‘आप लोग राजा नल और मेरी पुत्री दमयन्ती की खोज करें। निषध नरेश नल का पता लग जाने पर जब यह कार्य सम्पन्न हो जायेगा, तब मैं आप लोगों में से जो भी नल-दमयन्ती को यहाँ ले आयेगा, उसे एक हजार गौएं दूंगा। साथ ही जीविका के लिये अग्रहार (करमुक्त भूमि) दूंगा और ऐसा गांव दे दूंगा, जो आय में नगर के समान होगा। यदि नल-दमयन्ती में से किसी एक को या दोनों को ही यहाँ ले आना सम्भव न हो सके तो केवल उनका पता लग जाने पर भी मैं एक हजार गोधन दान करूंगा।'

राजा के ऐसा कहने पर वे सब ब्राह्मण बड़े प्रसन्न होकर सब दिशाओं में चले गये और नगर तथा राष्ट्रों में पत्नीसहित निषध नरेश नल का अनुसंधान करने लगे; परन्तु कहीं भी वे नल अथवा भीमकुमारी दमयन्ती को नहीं देख पाते थे। तदनन्तर सुदेव नामक ब्राह्मण ने पता लगाते हुए रमणीय चेदि नगरी में जाकर वहाँ राजमहल में विदर्भ कुमारी दमयन्ती को देखा। वह राजा के पुण्यवाचन के समय सुनन्दा के साथ खड़ी थी। उसका अनुपम रूप (मैल से आवृत होने के कारण) मंद-मंद प्रकाशित हो रहा था, मानो अग्नि की प्रभा धूमसमूह से आवृत हो रही हो। विशाल नेत्रों वाली उस राजकुमारी को अधिक मलिन और दुर्बल देख उपयुक्त कारणों से उसकी पहचान करते हुए सुदेव ने निश्चय किया कि यह भीमकुमारी दमयन्ती ही है।

सुदेव मन ही मन बोले- 'मैंने पहले जिस रूप में इस कल्याणमयी राजकन्या को देखा, वैसी ही यह आज भी है। लोककमनीय लक्ष्मी की भाँति इस भीमकुमारी को देखकर आज मैं कृतार्थ हो गया हूँ। यह श्यामा युवती पूर्ण चन्द्रमा के समान कांतिमयी है। इसके स्तन बड़े मनोहर और गोल-गोल हैं। यह देवी अपनी प्रभा से सम्पूर्ण दिशाओं को अलोकित कर रही है। उसके बड़े-बड़े नेत्र मनोहर कमलों की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। यह कामदेव की रति-सी जान पड़ती है। पूर्णिमा के चन्द्रमा की चांदनी के समान यह सब लोगों के लिये प्रिय है। विदर्भरूपी सरोवर से यह कमलिनी मानो प्रारब्ध के दोष से निकाल ली गयी है। इसके मलिन अंग कीचड़ लिपटी हुई नलिनी के समान प्रतीत होते हैं। यह उस पूर्णिमा की रजनी के समान जान पड़ती है, जिसके चन्द्रमा पर मानो राहू ने ग्रहण लगा रखा हो। पति-शोक से व्याकुल और दीन होने के कारण यह सूखे जल-प्रवाह वाली सरिता के समान प्रतीत होती है। इसकी दशा इस पुष्करिणी के समान दिखायी देती है, जिसे हाथियों ने अपने शुण्डदण्ड से मथ डाला हो तथा जो नष्ट हुए पत्तों वाले कमल से युक्त हो एवं जिसके भीतर निवास करने वाले पक्षी अत्यन्त भयभीत हो रहे हों। यह दुःख से अत्यन्त व्याकुल-सी प्रतीत हो रही है। मनोहर अंगों वाली यह सुकुमारी राजकन्या उन महलों में रहने योग्य है, जिसका भीतरी भाग रत्नों का बना हुआ है। (इस समय दुःख ने इसे ऐसा दुर्बल कर दिया है कि) यह सरोवर से निकाली और सूर्य की किरणों से जलायी हुई कमलिनी के समान प्रतीत हो रही है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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