महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-17

प्रथम (1) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर को सान्त्वना देने के लिये भीष्म जी के द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन

अन्‍तर्यामी नारायणस्‍वरूप भगवान श्रीकृष्‍ण, (उनके नित्‍य सखा) नरस्‍वरूप नरश्रेष्‍ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्‍वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्‍यास को नमस्‍कार करके 'जय' (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।

युधिष्ठिर ने कहा- "पितामह! आपने नाना प्रकार से शान्ति के सूक्ष्‍म स्‍वरूप का (शोक से मुक्‍त होने के विविध उपायों का) वर्णन किया; परंतु आपका यह ऐसा उपदेश सुनकर भी मेरे हृदय में शान्ति नहीं है। दादा जी! आपने इस विषय में शान्ति के बहुत-से उपाय बताये, परंतु इन नाना प्रकार के शान्तिदायक उपायों को सुनकर भी स्‍वयं ही किये गये अपराध से मन को शान्ति कैसे प्राप्‍त हो सकती है। वीरवर! बाणों से भरे हुए आपके शरीर और इसके गहरे घाव को देखकर मैं बार-बार अपने पापों का ही चिन्‍तन करता हूँ; अत: मुझे तनिक भी चैन नहीं मिलता है।

पुरुषसिंह! पर्वत से गिरने वाले झरने की तरह आपके शरीर से रक्‍त की धारा बह रही है। आपके सारे अंग खून से लथपथ हो रहे हैं। इस अवस्‍था में आपको देखकर मैं वर्षा काल के कमल की तरह गला (दु:खित होता) जाता हूँ। मेरे ही कारण समरांगण में शत्रुओं ने जो पितामह को इस अवस्‍था में पहुँचा दिया, इससे बढ़कर कष्‍ट की बात और क्‍या हो सकती है? आपके सिवा और भी बहुत-से नरेश मेरे ही कारण अपने पुत्रों और बान्‍धवों सहित युद्ध में मारे गये हैं। इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्‍या होगी? नरेश्‍वर! हम पांडव और धृतराष्‍ट्र के सभी पुत्र काल और क्रोध के वशीभूत हो यह निन्दित कर्म करके न जाने किस दुर्गति को प्राप्‍त होंगे! नरेश्‍वर! मैं राजा दुर्योधन के लिये उसकी मृत्‍यु को श्रेष्‍ठ समझता हूँ, जिससे कि वह आपको इस अवस्‍था में पड़ा हुआ नहीं देखता है। मैं ही आपके जीवन का अन्‍त करने वाला हूँ और मैं ही दूसरे-दूसरे सुहृदों का भी वध करने वाला हूँ। आपको इस दु:खमयी दुरवस्‍था में भूमि पर पड़ा देख मुझे शान्ति नहीं मिलती है। दुरात्मा एवं कुलांगार दुर्योधन सेना और बन्‍धुओं सहित क्षत्रिय धर्म के अनुसार होने वाले इस युद्ध में मारा गया। वह दुष्‍टात्‍मा आज आपको इस तरह भूमि पर पड़ा हुआ नहीं देख रहा है, अत: उसकी मृत्‍यु को ही मैं यहाँ श्रेष्‍ठ मानता हूँ; किन्‍तु अपने इस जीवन को नहीं। अपनी मर्यादा से कभी नीचे ने गिरने वाले वीरवर! यदि भाइयों सहित मैं शत्रुओं द्वारा पहले ही युद्ध में मार डाला गया होता तो आपको इस प्रकार सायकों से पीड़ित और अत्‍यन्‍त दु:ख से आतुर अवस्‍था में नहीं देखता। नरेश्‍वर! निश्‍चय ही विधाता ने हमें पापी ही रचा है। राजन! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे परलोक में भी मुझे इस पाप से छुटकारा मिल सके।"

भीष्‍म जी कहते हैं- "महाभाग! तुम तो सदा परतन्‍त्र हो (काल, अदृष्‍ट और ईश्‍वर के अधीन हो), फिर अपने को शुभाशुभ कर्मों का कारण क्‍यों समझते हो? वास्‍तव में कर्मों का कारण क्‍या है, यह विषय अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म तथा इन्द्रियों की पहुँच से बाहर है। इस विषय में विद्वान पुरुष गौतमी ब्राह्मणी, व्‍याध, सर्प, मृत्‍यु और काल के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। कुन्‍तीनन्‍दन! पूर्वकाल में गौतमी नाम वाली एक बूढ़ी ब्राह्मणी थी, जो शान्ति के साधन में संलग्‍न रहती थी। एक दिन उसने देखा, उसके इकलौते बेटे को साँप ने डँस लिया और उसकी चेतना शक्ति लुप्‍त हो गई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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