महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-16

एकोनषष्टितम (59) अध्‍याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

संजय का धृतराष्‍ट्र के पूछने पर उन्हें श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के अन्त:पुर में कहे हुए संदेश सुनाना

  • धृतराष्‍ट्र ने पूछा- महाप्राज्ञ संजय! महात्मा भगवान श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने जो कुछ कहा हो, वह मुझे बताओ; मैं तुम्हारे मुख से उनके संदेश सुनना चाहता हूँ। (1)
  • संजय ने कहा- भरतवंशी नरेश! सुनिये! मैंने वीरवर श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को जैसे देखा है और उन्होंने जो संदेश दिया है, वह आपको बता रहा हूँ। (2)
  • राजन! मैं नरदेव श्रीकृष्‍ण और अर्जुन से आपका संदेश सुनाने के लिये मन को पूर्णत: संयम में रखकर अपने पैरों की अंगलियों पर ही दृष्टि लगाये और हाथ जोडे़ हुए उनके अन्त:पुर में गया। (3)
  • जहाँ श्रीकृष्‍ण, अर्जुन, द्रौपदी और मानिनी सत्यभामा विराज रही थीं, उस स्थान में कुमार अभिमन्यु त‍था नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते थे। (4)
  • वे दोनों मित्र मधुर पेय पीकर आनन्दविभोर हो रहे थे। उन दोनों के श्रीअंग चन्दन से चर्चित थे। वे सुन्दर वस्त्र और मनोहर पुष्‍पमाला धारण करके दिव्य आभूषणों से विभूषित थे। (5)
  • शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों वीर जिस विशाल आसन पर बैठे थे, वह सोने का बना हुआ था। उसमें अनेक प्रकार के रत्न जटित होने के कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस पर भाँति-भाँति के सुन्दर बिछौने बिछे हुए थे। (6)
  • मैंने देखा, श्रीकृष्‍ण के दोनों चरण अर्जुन की गोद में थे और महात्मा अर्जुन का एक पैर द्रौपदी की तथा दूसरा सत्यभामा की गोद में था। (7)
  • कुन्तीकुमार अर्जुन ने उस समय मुझे बैठने के लिये एक सोने के पादपीठ [1] की ओर संकेत कर दिया। परंतु मैं हाथ से उसका स्पर्शमात्र करके पृथ्वी पर ही बैठ गया। (8)
  • बैठ जाने पर वहाँ मैंने पादपीठ से हटाये हुए अर्जुन के दोनों सुन्दर चरणों को ध्‍यानपूर्वक देखा। उनके तलुओं में ऊर्ध्‍वगामिनी रेखाएं दृष्टिगोचर हो रही थीं और वे दोनों पैर शुभसूचक विविध लक्षणों से सम्पन्न थे। (9)
  • श्रीकृष्‍ण और अर्जुन दोनों श्‍यामवर्ण, बड़े डील-डौल वाले, तरुण तथा शालवृक्ष के स्कन्धों के समान उन्नत हैं। उन दोनों को एक आसन पर बैठे देख मेरे मन में बड़ा भय समा गया। (10)
  • मैंने सोचा, इन्द्र और विष्‍णु के समान अचिन्त्य शक्तिशाली इन दोनों वीरों को मन्दबुद्धि दुर्योधन नहीं समझ पाता हैं। वह द्रोणाचार्य और भीष्‍म का भरोसा करके तथा कर्ण की डींग-भरी बातें सुनकर मोहित हो रहा है। (11)
  • ये दोनों महात्मा जिनकी आज्ञा का पालन करने के लिये उदा उद्यत रहते हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर का मानसिक संकल्प अवश्‍य सिद्ध होगा; यही उस समय मेरा निश्‍चय हुआ था। (12)
  • तत्पश्‍चात अन्न और जल के द्वारा मेरा सत्कार किया गया। यथोचित आदर-सत्कार पाकर जब मैं बैठा, तब माथ पर अञ्जलि जोड़कर मैंने उन दोनों से आपका संदेश कह सुनाया। (13)
  • तब अर्जुन ने जिसमें धनुष की डोरी की रगड़ से चिह्न बन गया था, उस हाथ से भगवान श्रीकृष्‍ण के शुभसूचक लक्षणों से युक्त चरण को धीरे-धीरे दबाते हुए उन्हें मुझको उत्तर देने के लिये प्रेरित किया। (14)
  • तदनन्तर इन्द्र के समान पराक्रमी तथा समस्त आभूषणों से विभूषित वक्ताओं में श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण इन्द्रध्‍वज के समान उठ बैठे और मुझसे पहले तो मृदुल एवं मन को आह्लाद प्रदान करने वाली प्रवचन योग्य वाणी बोले। फिर वह वाणी अत्यन्त दारुणरूप में प्रकट हुई, जो आपके पुत्रों के लिये भय उपस्थित करने वाली थी। (15-16)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पैर रखने के पीढे़

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