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महाभारत: उद्योग पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
- गरुड़ की पीठ पर बैठकर पूर्व दिशा की ओर जाते हुए गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
गालव ने कहा- गरुत्म्न! भुजगराजशत्रो! सुपर्ण! विनतानन्दन! तार्क्ष्य! तुम मुझे पूर्व दिशा की ओर ले चलो, जहाँ धर्म के नेत्रस्वरूप सूर्य और चंद्रमा प्रकाशित होते हैं। (1)
- जिस दिशा का तुमने सबसे पहले वर्णन किया है, उसी दिशा की ओर पहले चलो; क्योंकि उस दिशा में तुमने देवताओं का सानिध्य बताया है तथा वहीं सत्य और धर्म की स्थिति का भी भली-भाँति प्रतिपादन किया है। अरुण के छोटे भाई गरुड़! मैं सम्पूर्ण देवताओं से मिलना और पुन: उन सबका दर्शन करना चाहता हूँ। (2-3)
- नारदजी कहते हैं- तब विनतानन्दन गरुड़ ने विप्रवर गालव से कहा- 'तुम मेरे ऊपर चढ़ जाओ।' तब गालव मुनि गरुड़ की पीठ पर जा बैठे। (4)
- गालव ने कहा- सर्पभोजी गरुड़! पूर्वाह्णकाल में सहस्र किरणों से सुशोभित भुवनभास्कर सूर्य का स्वरूप जैसा दिखाई देता है, आकाश में उड़ते समय तुम्हारा स्वरूप भी वैसा ही दृष्टिगोचर होता है। (5)
- खेचर! तुम्हारे पंखों की हवा से उखड़कर ये वृक्ष पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। मैं इनकी भी ऐसी तीव्र गति देख रहा हूँ, मानो ये भी हम लोगों के साथ चलने के लिए प्रस्थित हुए हों। (6)
- आकाशचारी गरुड़! तुम अपने पंखों के वेग से उठी हुई वायु द्वारा समुद्र की जलराशि, पर्वत, वन और काननों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी को अपनी ओर खींचते से जान पड़ते हो। (7)
- पांखों के हिलाने से निरंतर उठती हुई प्रचंड वायु के वेग से मत्स्य, जलहस्ती तथा मगरों सहित समुद्र का जल तुम्हारे द्वारा मानो आकाश में उछाल दिया जाता है। (8)
- जिनके आकार और मुख एक-से हैं ऐसे मत्सयों को, तिमी और तिमिंगिलों को तथा हाथी, घोड़े और मनुष्यों के समान मुख वाले जल-जंतुओं को मैं उन्मथित हुए-से देखता हूँ। (9)
- महासागर की इन भीषण गर्जनाओं ने मेरे कान बहरे कर दिये हैं। मैं न तो सुन पाता हूँ, न देख पाता हूँ और न अपने बचाव का कोई उपाय ही समझ पाता हूँ। (10)
- तात गरुड़! तुमसे कहीं ब्रह्म हत्या न हो जाये, इसका ध्यान रखते हुए धीरे-धीरे चलो। मुझे इस समय न तो सूर्य दिखाई देते हैं, न दिशाएँ सूझती हैं और न आकाश ही दृष्टिगोचर होता है। (11)
- मुझे केवल अंधकार ही दिखाई देता है। मैं तुम्हारे शरीर को नहीं देख पाता हूँ। अंडज! तुम्हारी दोनों आँखें मुझे उत्तम जाति की दो मणियों के समान चमकती दिखाई देती हैं। (12)
- मैं न तो तुम्हारे शरीर को देखता हूँ और न अपने शरीर को। मुझे पग-पग पर तुम्हारे अंगों से आग की लपटें उठती हुई दिखाई देती हैं। (13)
- विनतानन्दन! तुम उस आग को सहसा बुझाकर पुन: अपने दोनों नेत्रों को भी शांत करो और तुम्हारी गति में जो इतना महान वेग है, इसे रोको। (14)
- गरुड़! इस यात्रा से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, अत: लौट चलो। महाभाग मैं! तुम्हारे वेग को नहीं सह सकता। (15)
- मैंने गुरु को ऐसे आठ सौ घोड़े देने की प्रतिज्ञा की है, जो चंद्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति से युक्त हों और जिनके कान एक ओर से श्याम रंग के हों। (16)
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