त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण ने पूछा- व्याध! शरीर में रहने वाला अग्नि स्वरूप प्राण पार्थिव धातु का अवलम्बन करके कैसे रहता है? और प्राणवायु नाड़ियों के मार्गविशेष के द्वारा किस प्रकार (रस-रक्तादि का) संचालन करता है? मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राह्मण के द्वारा उपस्थित किये गये इस प्रश्न को सुनकर धर्मव्याध ने उन महामना ब्राह्मण से इस प्रकार कहा। धर्मव्याध बोला- ब्रह्मन! प्राणी के शरीर को सुरक्षित रखता हुआ अग्नि स्वरूप उदान वायु मस्तक का आश्रय लेकर शरीर में रहता है एवं मुख्य प्राण मस्तक और उदान वायु इन दोनों में स्थित हुआ समस्त शरीर में जीवन का संचार करता है। भूत, वर्तमान और भविष्य-सब कुछ प्राण के ही आश्रित है, वह प्राण ही समस्त भूतों में श्रेष्ठ है। अत: परब्रह्म से उत्पन्न होने वाले प्राण की हम सब उपासना करते हैं। वह प्राण ही जीव है, वही समस्त प्राणियों का आत्मा है, वही सनातन पुरुष है, महत्तत्व, बुद्धि और अहंकार तथा पांचों भूतों के कार्यरूप इन्द्रियां और उनके विषय सब कुछ वही है (क्योंकि इस शरीर में सबकी स्थिति उसी के आश्रित है और भविष्य में मिलने वाले शरीर में जाना-आना भी इसी के आश्रित रहकर होता है। इसलिये यह प्राण की स्तुति की गयी है।) द्विजश्रेष्ठ! प्राण ही अव्यक्त, सत्व, जीव, काल, प्रकृति और पुरुष है। वही जाग्रत्-अवस्था में जागता है। वही स्वप्नकाल में स्वप्न-जगत का निर्माण करके स्वप्नावस्था की सारी चेष्टाएं करता है। वही जाग्रत् काल में बल का आधान करता है और चेष्टाशील प्राणियों में चेष्टा उत्पन्न करता है। विप्रवर! उस प्राण का निरोध हो जाने पर ही प्रत्येक जीव मरा हुआ कहलाता है। भूतात्मा प्राण एक शरीर को छोड़कर फिर दूसरे शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। इस प्रकार इस जगत् में सर्वत्र प्राण की स्थिति है। प्राण के द्वारा ही सबका पालन होता है। पीछे वही प्राण जब समान वायुभाव से प्राप्त होता है, तब अपनी-अपनी पृथक् गति का आश्रय लेता है। समान वायु के रूप में जठराग्नि का आश्रय ले वह प्राण जब मूत्राशय और गुदा में स्थित होता है, उस समय मल और मूत्र का भार वहन करने के कारण वह अपान वायु के नाम से विख्यात हो संचरण करता है। वही प्राण जब प्रयत्न (काम करने की चेष्टा), कर्म शक्ति (उत्क्षेपण और गमन आदि) तथा बल (बोझ उठाने की शक्ति)-इन तीन विषयों में प्रवृत्त होता है, तब अध्यात्मवेत्ता मनुष्य उसे उदान कहते हैं। वही जब मनुष्य-शरीर के प्रत्येक संधिस्थल में व्याप्त होकर रहता है, तब उसे व्यान कहते हैं। त्वचा आदि सब धातुओं में जठरानल व्याप्त है। वह प्राण आदि वायुओं से प्रेरित होकर अन्न आदि रसों, त्वचा आदि धातुओं तथा पित्त आदि दोषों को परिपक्व करता हुआ समूचे शरीर में दोड़ा करता है। प्राण आदि वायुओं के परस्पर मिलने से एक संघर्ष उत्पन्न होता है, उससे प्रकट होने वाले उत्ताप को ही जठरानल समझना चाहिये। वही देहधारियों के खाये हुए अन्न को पचाता है। समान और उदान वायुओं के बीच में प्राण और अपान वायु की स्थिति है। उनके संघर्ष से उत्पन्न जठरानल अन्न को पचाता है और रस से इस शरीर को भली-भाँति पुष्ट करता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तात्पर्य यह है कि हृदय में रहने वाला प्राण, नाभि में रहने वाले समान से जाकर मिलता है। इसी तरह गुदा में रहने वाला अपान कंठवर्ती उदान से जा मिलता है, इस दशा में प्राण, अपान और समान का नाभि में संघर्ष होने से जो अग्नि उत्पन्न होती है, उसे ही 'जठरानल' नाम दिया गया है। वही इस शरीर में अन्न को पचाकर उसके रस से शरीर को पुष्ट करता है।
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