त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद
ब्रह्मन्! वे प्राण और अपान जठरानल के साथ रहते हैं। प्राण को आत्मा में स्थित जानिये। आत्मा एकादश इन्द्रियरूप विकारों से युक्त, षोडश कलाओं के समूह से सम्पन्न, शरीर को धारण करने वाला तथा नित्य है। उसने योगबल से मन बुद्धि को अपने अधीन कर रखा है। इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में आपको जानना चाहिये। जैसे बटलोई में आग रखी गयी हो, उसी प्रकार पूर्वोक्त कला-समूहरूप शरीर में प्रकाश स्वरूप शरीर में प्रकाश स्वरूप आत्मा सदा विद्यमान रहता है। आप उसे जानिये। वह नित्य तथा योगशक्ति से मन-बुद्धि को अपने अधीन रखने वाला है। जैसे कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूंद निर्लिप्त होती है, उसी प्रकार ये आत्मदेव कलात्मक शरीर में असंग भाव से स्थित हैं। वे ही क्षेत्रज्ञ हैं, आप उन्हें जानिये। वे योग से अपने मन और बुद्धि पर अधिकार प्राप्त करने वाले तथा नित्य हैं। ब्रह्मन्! आप यह जान लें कि सत्वगुण (प्रकाश, रजोगुण (प्रवृत्ति) और तमोगुण (मोह)-ये जीवात्मक हैं अर्थात् जीवात्मा के अन्त:करण के विकार हैं, जीव आत्मा का गुण (सेवक) है और परमात्मस्वरूप है। भाव यह कि परमात्मा को ही यहाँ आत्मा कहा गया है। शरीर-तत्व के ज्ञाता महात्मा पुरुष जड़ शरीर आदि को जीव का भोग्य बताते हैं। वह जीव शरीर के भीतर रहकर स्वयं चेष्टाशील होता है तथा शरीर और इन्द्रिय आदि सबको चेष्टाओं में लगाता है। जिन्होंने सातों भुवनों का निर्माण किया है, उन परमात्मा को ज्ञानी पुरुष जीवात्मा से उत्कृष्ट बताते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण भूतों के आत्मा परमेश्वर समस्त प्राणियों के भीतर प्रकाशित हो रहे हैं। ज्ञानी महात्मा अपनी श्रेष्ठ एवं सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा उन्हें देख पाते हैं। मनुष्य अपने चित्त की पवित्रता के द्वारा ही समस्त शुभाशुभ कर्मों को नष्ट (फल देने में असमर्थ) कर देता है। जिसका अन्त:करण प्रसन्न (पवित्र) है, वह अपने आप में ही स्थित होकर अक्षय सुख (मोक्ष) का भागी होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज