महाभारत वन पर्व अध्याय 177 श्लोक 1-16

सप्तसप्तत्यधिकशततम (177) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


पाण्डवों का गन्धमादन से बदरिकाश्रम, सुबाहुनगर और विशाखयूप वन में होते हुए सरस्वति-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन अनेकानेक निर्झरों से सुशोभित तथा दिग्गजों, किन्नरों और पक्षियों से सुसेवित होने के कारण भरतवंशियों में श्रेष्ठ पाण्डवों के लिये एक सुखदायक निवास था, उसे छोड़ते समय उनका मन प्रसन्न नहीं था। तत्पश्चात् कुबेर के प्रिय भूधर कैलास को, जो श्वेत बादलों के समान प्रकाशित हो रहा था, देखकर भरतकुलभूषण पाण्डुपुत्रों को पुनः महान हर्ष प्राप्त हुआ। नरश्रेष्ठ पाण्डव अपने हाथों में खड़ग और धनुष लिये हुए थे। वे ऊँचाई, पर्वतों के संकरे स्थान, सिंहों की मादें, पर्वतीय नदियों को पार करने के लिये बने हुए पुल, बहुत-से झरने और नीची भूमियों को जहाँ-तहाँ देखते हुए तथा मृग, पक्षी एवं हाथियों से सेवित दूसरे-दूसरे विशाल वनों का अवलोकन करते हुए विश्वासपूर्वक आगे बढ़ने लगे।

पुरुषरत्न पाण्डव कभी रमणीय वनों में, कभी सरोवरों के किनारे, कभी नदियों के तट पर और कभी पर्वतों की छोटी बड़ी गुफाओं में दिन या रात के समय ठहरते जाते थे। सदा ऐसे ही स्थानों में उनका निवास होता था। अनेक बार दुर्गम स्थानों में निवास करके अचिन्त्यरूप कैलास पर्वत को पीछे छोड़कर वे पुनः वृषपर्वा के अत्यन्त मनोरम उस श्रेष्ठ आश्रम में आ पहुँचे। वहाँ राजा वृषपर्वा से मिलकर और उनसे भली-भाँति पूजित होकर उन सबका शोक-मोह दूर हो गया। फिर उन्होंने वृषपर्वा से गन्धमादन पर्वत पर अपने रहने के वृत्तान्त का यथार्थ रूप से एवं विस्तारपूर्वक वर्णन किया। उस पवित्र आश्रम में देवता और महर्षि निवास किया करते थे। वहाँ एक रात सुखपूर्वक रहकर वे वीर पाण्डव फिर विशालपुरी के बदरिकाश्रम तीर्थ में चले आये और वहाँ बड़े आनन्द से रहे। तत्पश्चात् वहाँ भगवान् नर-नारायण के क्षेत्र में आकर सभी महानुभाव पाण्डवों ने सुखपूर्वक निवास किया और शोकरहित हो कुबेर की उस प्रिय पुष्करिणी का दर्शन किया, जिसका सेवन देवता और सिद्ध पुरुष किया करते हैं। सम्पूर्ण मनुष्यों में श्रेष्ठ वे पाण्डुपुत्र उस पुष्करिणी का दर्शन करके शोकरहित हो वहाँ इस प्रकार आनन्द का अनुभव करने लगे, मानो निर्मल ब्रह्मर्षिगण इन्द्र के नन्दनवन में सानन्द विचर रहे हों। इसके बाद वे सारे नरवीर जिस मार्ग से आये थे, क्रमशः उसी मार्ग से चल दिये। बदरिकाश्रम में एक मास तक सुखपूर्वक विहार करके उन्होंने किरात नरेश सुबाहु के राज्य की ओर प्रस्थान किया।

कुलिन्द के तुषार, दरद आदि धनधान्य से युक्त और प्रचुर रत्नों से सम्पन्न देशों को लांघते हुए हिमालय के दुर्गम स्थानों को पार करके उन नरवीरों ने राजा सुबाहु का नगर देखा। राजा सुबाहु ने जब सुना कि मेरे राज्य में राजपुत्र पाण्डवगण पधारे हुए हैं, तब बहुत प्रसन्न होकर नगर से बाहर आ उसने उन सबकी अगवानी की। फिर कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि ने भी उनका बड़ा समादर किया। राजा सुबाहु से मिलकर वे विशोक आदि अपने सारथियों, इन्द्रसेन आदि परिचारकों, अग्रगामी सेवकों तथा रसोइयों से भी मिले। वहाँ उन सबने एक रात बड़े सुख से निवास किया। पाण्डवों ने अपने सारे सारथियों तथा रथों को साथ ले लिया और अनुचरों सहित घटोत्कच को विदा करके वहां से पर्वतराज को प्रस्थान किया, जहाँ यमुना का उद्गम स्थान है। झरनों से युक्त हिमराशि उस पर्वतरूपी पुरुष के लिये उत्तरीय का काम करती थी और उसका अरुण एवं श्वेत रंग का शिखर बालसूर्य की किरणें पड़ने से सफेद एव लाल पगड़ी के समान शोभा पाता था। उसके ऊपर विशाखयूप नामक वन में पहुँचकर नरवीर पाण्डवों ने उस समय निवास किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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