महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 123 श्लोक 1-16

त्रयोविंशत्यधिकशततम (123) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


शाण्डिली और सुमना का संवाद, पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- सम्पूर्ण धर्मज्ञों में श्रेष्ठ पितामह! साध्वी स्त्रियों के सदाचार का क्या स्वरूप है? यह मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ। उसे मुझे बताइये।

भीष्म जी कहते हैं- राजन! देवलोक की बात है, सम्पूर्ण तत्त्वों को जानने वाली सर्वज्ञा एवं मनस्विनी शाण्डिली देवी से केकयराज की पुत्री सुमना ने इस प्रकार प्रश्न किया- 'कल्याणि! तुमने किस बर्ताव अथवा किस सदाचार के प्रभाव से समस्त पापों का नाश करके देवलोक में पदार्पण किया है? तुम अपने तेज से अग्नि की ज्वाला के समान प्रज्वलित होे रही हो और चन्द्रमा की पुत्री के समान अपनी उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित होती हुई स्वर्गलोक में आयी हो। निर्मल वस्त्र धारण किये थकावट और परिश्रम से रहित होकर विमान पर बैठी हो। तुम्हारी मंगलमयी आकृति है, तुम अपने तेज से सहस्र गुनी शोभा पा रही हो। थोड़ी- सी तपस्या, थोड़े-से दान या छोटे-मोटे नियमों का पालन करके तुम इस लोक में नहीं आयी हो। अतः अपनी साधना के सम्बन्ध में सच्ची-सच्ची बात बताओ।'

सुमना के इस प्रकार मधुर वाणी में पूछने पर मनोहर मुस्कान वाली शाण्डिली ने उससे नम्रतापूर्ण शब्दों में इस प्रकार कहा। देवि! मैंने गेरुआ वस्त्र नहीं धारण किया, वल्कल वस्त्र नहीं पहना, मूँड़ नहीं मुड़ाया और बड़ी-बड़ी जटाएँ नहीं रखायीं। वह सब करके मैं देवलोक में नहीं आयी हूँ। मैंने सदा सावधान रहकर अपने पतिदेव के प्रति मुँह से कभी अहितकर और कठोर वचन नहीं निकाले हैं। मैं सदा सास-ससुर की आज्ञा में रहती और देवता, पितर तथा ब्राह्मणों की पूजा में सदा सावधान होकर संलग्न रहती थी। किसी की चुगली नहीं खाती थी। चुगली करना मेरे मन को बिल्कुल नहीं भाता था। मैं घर का दरवाजा छोड़कर अन्यत्र नहीं खड़ी होती और देर तक किसी से बात नहीं करती थी।

मैंने कभी एकान्त में या सबके सामने किसी के साथ अश्लील परिहास नहीं किया तथा मेरी किसी क्रिया द्वारा किसी का अहित भी नहीं हुआ। मैं ऐसे कार्यों में कभी प्रवृत्त नहीं होती थी। यदि मेरे स्वामी किसी कार्य से बाहर जाकर फिर घर को लौटते तो मैं उठकर उन्हें बैठने के लिये आसन देती और एकाग्रचित्त हो उनकी पूजा करती थी। मेरे स्वामी जिस अन्न को ग्रहण करने योग्य नहीं समझते थे तथा जिस भक्ष्य भोज्य या लेह्य आदि को वे नहीं पसंद करते थे, उन सबको मैं भी त्याग देती थी। सारे कुटुम्ब के लिये जो कुछ कार्य आ पड़ता, वह सब मैं सबेरे ही उठकर कर लेती थी।

मैं अग्निहोत्र की रक्षा करती और घर को लीप-पोतकर शुद्ध रखती थी। बच्चों का प्रतिदिन पालन करती और कन्याओं को नारी धर्म की शिक्षा देती थी। अपने को प्रिय लगने वाली खाद्य वस्तुएँ त्यागकर भी गर्भ की रक्षा में ही सदा संलग्न रहती थी। बच्चों को शाप गाली देना, उन पर क्रोध करना अथवा उन्हें सताना आदि मैं सदा के लिये त्याग चुकी थी। मेरे घर में कभी अनाज छीटे नहीं जाते थे। किसी भी अन्न को बिखेरा नहीं जाता था। मैं अपने घर में गौओं को घास-भूसा खिलाकर, पानी पिलाकर तृप्त करती थी और रत्न की भाँति उन्हें सुरक्षित रखने की इच्छा करती थी तथा शुद्ध अवस्था में आगे बढ़कर ब्राह्मणों को भिक्षा देती थी। यदि मेरे पति किसी आवश्यक कार्यवश कभी परदेश जाते तो मैं नियम से रहकर उनके कल्याण के लिये नाना प्रकार के मांगलिक कार्य किया करती थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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