महाभारत वन पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-17

एकत्रिंश (31) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी के आक्षेप का समाधान तथा ईश्वर, धर्म और महापुरुषों के आदर से लाभ और अनादर से हानि

युधिष्ठिर बोले- यज्ञसेनकुमारी! तुमने जो बात कही है, वह सुनने में बड़ी मनोहर, विचित्र पदावली से सुशोभित तथा बहुत सुन्दर है, मैंने उसे बड़े ध्यान से सुना है। परंतु इस समय तुम (अज्ञान से) नास्तिक मत का प्रतिपादन कर रही हो। राजकुमारी! मैं कर्मों के फल की इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता; अपितु ‘देना कर्तव्य है‘ यह समझकर दान देता हूँ और यज्ञ को भी कर्तव्य मानकर ही उसका अनुष्ठान करता हूँ। कृष्णे! यहाँ उस कर्म का फल हो या न हो, गृहस्थ आश्रम में रहने वाले पुरुष का जो कर्तव्य है, मैं उसी का यथाशक्ति कर्तव्य बुद्धि से पालन करता हूँ। सुश्रोणि! मैं धर्म का फल पाने के लोभ से धर्म का आचरण नहीं करता, अपितु साधु पुरुषों के आचार व्यवहार से ही मेरा मन धर्म पालन में लगा है।

द्रौपदी! जो मनुष्य कुछ पाने की इच्छा से धर्म का व्यापार करता है, वह धर्मवादी पुरुषों की दृष्टि में हीन और निन्दनीय है। जो पापात्मा मनुष्य नास्तिकतावश, धर्म का अनुष्ठान करके उसके विषय में शंका करता है अथवा धर्म को दुहना चाहता है अर्थात् धर्म के नाम पर स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, उसे धर्म का फल बिल्कुल नहीं मिलता। मैं सारे प्रमाणों से ऊपर उठकर केवल शास्त्र के आधार-पर यह जोर देकर कह रहा हूँ कि तुम धर्म के विषय में शंका न करो; क्योंकि धर्म पर संदेह करने वाला मानव पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेता है। जो धर्म के विषय में संदेह रखता है, वह जरा-मृत्यु रहित परमधाम से उसी प्रकार वंचित रहता है, जैसे शूद्र वेदों के अध्ययन से। मनस्विनि! जो वेद का अध्ययन करने वाला, धर्म परायण और कुलीन हो, उस राजर्षि गणना धर्मात्मा पुरुषों को वृद्धों में करनी चाहिये (वह आयु में छोटा हो तो भी उसका वृद्ध पुरुष के समान आदर करना चाहिये)।

जो मन्द बुद्धि पुरुष शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन करके धर्म के विषय में आशंका करता है, वह शुद्रों और चोरों से भी बढ़कर पापी है। तुमने अमेयात्मा महातपस्वी मार्कण्डेय जी को अभी यहाँ से गये है, प्रत्यक्ष देखा है। व्यास, वसिष्ठ, मैत्रेय, नारद, लोमश, शुक तथा अन्य सब महर्षि धर्म के पालन से ही शुद्ध हृदय वालु हुए हैं। तुम अपनी आँखों इन सबको देखती हो, ये दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न, शाप और अनुग्रह में समर्थ तथा देवताओं से भी अधिक गौरवशाली हैं। अनघे ये अमरों के समान विख्यात तथा वेदगम्य विषय को भी प्रत्यक्ष देखने वाले महर्षि धर्म को ही सबसे प्रथम आचरण में लाने योग्य बताते हैं। अतः कल्याणमयी महारानी द्रौपदी! तुम्हें मूर्खतायुक्त मन के द्वारा ईश्वर और धर्म पर आपेक्ष एवं आशंका नहीं करनी चाहिये। धर्म के विषय मे संशय रखने वाला बाल बुद्धि मानव जिन्हें धर्म के तत्त्व का निश्चय हो गया है, अतः दूसरे किसी से कोई शास्त्र-प्रमाण नहीं ग्रहण करता। केवल अपनी बुद्धि को ही प्रमाण मानने वाला उद्दण्ड मानव श्रेष्ठ पुरुषों एवं उत्तम धर्म की अवहेलना करता है; क्योंकि वह मूढ़ आसक्ति से सम्बन्ध रखने वाला इस लोक-प्रत्यक्ष हृदय जगत की ही सत्ता स्वीकार करता है। अप्रत्यक्ष वस्तु के विषयों में उसकी बुद्धि मोह में पड़ जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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