महाभारत वन पर्व अध्याय 288 श्लोक 1-19

अष्टाशीत्यधिकद्विशततम (288) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टाशीत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: 1-19 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्छा

मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर सेवकों सहित कुम्भकर्ण, महाधनुर्धर प्रहस्त तथा अत्यन्त तेजस्वी धूम्राक्ष को संग्राम में मारा गया सुनकर रावण ने अपने वीर पुत्र इन्द्रजित से कहा- ‘शत्रुसूदन! तुम राम, लक्ष्मण तथा सुग्रीव का वध करो। सुपुत्र! तुमने युद्ध में सहस्र नेत्रों वाले वज्रधारी शचीपति इन्द्र को जीतकर उज्ज्वल यश का उपार्जन किया है। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ शत्रुनाशक वीर! जिनके लिये देवताओं ने तुम्हें वरदान दिया है, ऐसे दिव्यास्त्रों द्वारा प्रकट रूप में या अदृश्य होकर मेरे शत्रुओं का नाश करो। अनध! स्वयं राम, लक्ष्मण और सुग्रीव भी तुम्हारे बाणों का आघात सहन करने में समर्थ नहीं हैं, फिर उनके अनुयायी तो हो ही कैसे सकते हैं? निष्पाप महाबाहो! प्रहस्त और कुम्भकर्ण ने भी खर के वध का जो बदला नहीं चुकाया, उसे युद्ध में तुम चुकाओ। बेटा! तुमने पूर्वकाल में इन्द्र को जीतकर जिस प्रकार मुझे आनन्दित किया था, उसी प्रकार आज तुम तीखे बाणों से सैनिकों सहित शत्रुओं का संहार करके मेरा आनन्द बढ़ाओ’।

राजन्! रावण के द्वारा ऐसी आज्ञा देने पर इन्द्रजित ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर पिता की आज्ञा स्वीकार की और वह कवच बाँध रथ पर बैठकर तुरंत ही संग्राम भूमि की ओर चल दिया। तत्पश्चात् उस राक्षसराज ने स्पष्ट रूप से अपने नाम की घोषणा करके शुभलक्षण लक्ष्मण को युद्ध में ललकारा। तब लक्ष्मण भी धनुष पर बाण चढ़ाये हुए उसकी ओर बड़े वेग से दौड़े और सिंह जैसे छोटे मृगों को डरा देता है, उसी प्रकार वे अपने धनुष की टंकार से सब राक्षसों को त्रास देने लगे। वे दोनों ही विजय की अभिलाषा रखने वाले, दिव्यास्त्रों के ज्ञाता तथा परस्पर बड़ी स्पर्धा रखने वाले थे। उन दोनों में उस समय बड़ा भारी युद्ध हुआ। बलवानों में श्रेष्ठ रावणकुमार इन्द्रजित जब बाण वर्षा करने में लक्ष्मण से आगे न बढ़ सका, तब उसने गुरुतर प्रयत्न आरम्भ किया। उसने अत्यन्त वेगशाली तोमरों की वर्षा करके लक्ष्मण को पीड़ा पहुँचाने की चेष्टा की, परंतु लक्ष्मण ने तीखे बाणों से उन सब तोमरों को पास आते ही काट गिराया।

लक्ष्मण के तीखे बाणों से टूक-टूक होकर वे तोमर पृथ्वी पर बिखर गये। तब महावेगशाली बालि के पुत्र श्रीमान् अंगद ने एक वृक्ष उठा लिया और दौड़कर इन्द्रजित के मस्तक पर उसे दे मारा; परंतु इन्द्रजित इससे तनिक भी विचलित न हुआ। उस पराक्रमी वीर ने प्रास द्वारा अंगद की छाती में प्रहार करने का विचार किया, किंतु लक्ष्मण ने उसे पहले ही काट गिराया। तब रावणकुमार ने अपने निकट आये हुए वानरश्रेष्ठ वीर अंगद की बायीं पसली में गदा से आघात किया। बलवान् बालिनन्दन अंगद ने इन्द्रजित् के उस गदा प्रहार की कोई परवा न करके उसके ऊपर क्रोधपूर्वक साखू का तना दे मारा। युधिष्ठिर! अंगद के द्वारा इन्द्रजित् के वध के लिये रोषपूर्वक चलाये हुए उस वृक्ष ने उसके सारथि और घोड़ों सहित रथ को नष्ट कर दिया। राजन्! सारथि के मारे जाने पर रावणकुमार इन्द्रजित उस अश्वहीन रथ से कूद पड़ा और माया का आश्रय ले वहीं अन्तर्धान हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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