महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 99 श्लोक 1-20

नवनवतितम (99) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: नवनवतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


नहुष का ऋषियों पर अत्‍याचार तथा उसके प्रतीकार के लिये महर्षि भृगु और अगस्‍त्‍य की बातचीत

युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! फूल और धूप देने वालों को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह मैंने सुन लिया। अब बलि समर्पित करने का जो फल है, उसे पुनः बताने की कृपा करें। धूपदान और दीपदान का फल तो ज्ञात हो गया। अब यह बताइये कि गृहस्थ पुरुष बलि किसलिये समर्पित करते हैं।

भीष्म जी ने कहा- राजन! इस विषय में भी जानकर मनुष्य राजा नहुष और अगस्त्य एवं भृगु के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। महाराज! राजर्षि नहुष बड़े भारी तपस्वी थे। उन्होंने अपने पुण्य कर्म के प्रभाव से देवराज इन्द्र का पद प्राप्त कर लिया था। राजन! वहाँ स्वर्ग में रहते हुए भी शुद्धचित्त राजा नहुष नाना प्रकार के दिव्य और मानष कर्मों का अनुष्ठान किया करते थे। नरेश्‍वर! स्वर्ग में भी महामना राजा नहुष की सम्पूर्ण मानुषी क्रियाएँ तथा दिव्य सनातन क्रियाएँ भी सदा चलती रहती थीं।

अग्निहोत्र, समिधा, कुशा, फूल, अन्न और लावा की बलि, धूपदान तथा दीपकर्म- ये सब-के-सब महामना राजा नहुष के घर में प्रतिदिन होते रहते थे। वे स्वर्ग में रहकर भी जप-यज्ञ एवं मनोयज्ञ (ध्यान) करते रहते थे। शत्रुदमन! वे देवेश्‍वर नहुष विधिपूर्वक सभी देवताओं का पूर्ववत यथोचित रूप से पूजन किया करते थे। किंतु तदनन्तर ‘मैं इन्द्र हूँ’ ऐसा समझकर वे अहंकार के वशीभूत हो गये। इससे उन भूपाल की सारी क्रियाएँ नष्टप्राय होन लगीं। वे वरदान के मद से मोहित हो ऋषियों से अपनी सवारी खिंचवाने लगे। उनका धर्म-कर्म छूट गया। अतः वे दुर्बल हो गये, उनमें धर्मबल का अभाव हो गया। वे अहंकार से अभिभूत होकर क्रमश: सभी श्रेष्ठ तपस्वी मुनियों को अपने रथ में जोतने लगे। ऐसा करते हुए राजा का दीर्घकाल व्यतीत हो गया। नहुष ने बारी-बारी से सभी ऋषियों का अपना वाहन बनाने का उपक्रम किया था।

भारत! एक दिन महर्षि अगस्त्य की बारी आयी। उसी दिन ब्रह्मदेवताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी भृगु जी अपने आश्रम पर बैठे हुए अगस्त्य के निकट आये ओर इस प्रकार बोले- ‘महामुने! देवराज बनकर बैठे हुए इस दुर्बुद्धि नहुष के अत्याचार को हम लोग किसलिये सह रहे हैं।'

अगस्त्यजी ने कहा- 'महामुने! मैं इस नहुष को कैसे शाप दे सकता हूँ, जबकि वरदानी ब्रह्मा जी ने इसे वर दे रखा है। उसे वर मिला है, यह बात आपको भी विदित ही है। स्वर्गलोक में आते समय इस नहुष ने ब्रह्मा जी से यह वर मांगा था कि ‘जो मेरे दृष्टिपथ में आ जाये, वह मेरे अधीन हो जाये।' ऐसा वरदान प्राप्त होने के कारण ही मैंने और आपने भी अव तक इसे दग्ध नहीं किया है। इसमें संशय नहीं है। दूसरे किसी श्रेष्ठ ऋषि ने भी उसी वरदान के कारण न तो अब तक उसे जलाकर भस्म किया और न स्वर्ग से नीचे ही गिराया।

प्रभो! पूर्वकाल में महात्मा ब्रह्मा ने इसे पीने के लिये अमृत प्रदान किया था। इसलिये हम लोग इस नहुष को स्वर्ग से नीचे नहीं गिरा रहे हैं। भगवान ब्रह्मा जी ने जो इसे वर दिया था, वह प्रजाजनों के लिये दुःख का कारण बन गया। वह नराधम ब्राह्मणों के साथ अधर्मयुक्त बर्ताव कर रहा है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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