अष्टनवतितम (98) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 51-66 का हिन्दी अनुवाद
अब मैं देवताओं, यक्षों, नागों, मनुष्यों, भूतों तथा राक्षसों को बलि समर्पण करने से जो लाभ होता है, जिन फलों का उदय होता है, उनका वर्णन करूँगा। जो लोग अपने भोजन करने से पहले देवताओं, ब्राह्मणों, अतिथियों और बालकों को भोजन नहीं कराते, उन्हें भयरहित अमंगलकारी राक्षस ही समझो। अतः गृहस्थ मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह आलस्य छोड़कर देवताओं की पूजा करके उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करे और शुद्धचित्त हो सर्वप्रथम उन्हीं को आदरपूर्वक अन्न का भाग अर्पण करे, क्योंकि देवता लोग सदा गृहस्थ मनुष्यों की दी हुई बलि को स्वीकार करते और उन्हें आशीर्वाद देते हैं। देवता, पितर, यक्ष, राक्षस, सर्प तथा वाहर से आये हुए अन्य अतिथि आदि गृहस्थ के दिये हुए अन्न से ही जीविका चलाते हैं और प्रसन्न होकर उस गृहस्थ को आयु, यश तथा धन के द्वारा संतुष्ट करते हैं। देवताओं को जो बलि दी जाये, वह दही, दूध की बनी हुई, परम पवित्र, सुगन्धित, दर्शनीय और फूलों से सुशोभित होनी चाहिये। आसुर स्वभाव के लोग यक्ष और राक्षसों को रूधिर और मांस से युक्त बलि अर्पित करते हैं, जिसके साथ सुरा और आसव भी रहता है तथा ऊपर से धान का लावा छींटकर उस बलि को विभूषित किया जाता है। नागों को पद्म और उत्पलयुक्त बलि प्रिय होती है। गुड़ मिश्रित तिल भूतों को भेंट करें। जो मनुष्य देवता आदि को पहले बलि प्रदान करके भोजन करता है, वह उत्तम भोग से सम्पन्न, बलवान और वीर्यवान होता है। इसलिये देवताओं को सम्मानपूर्वक अन्न पहले अर्पण करना चाहिये। गृहस्थ के घर की अधिष्ठातृ देवियाँ उसके घर को सदा प्रकाशित किये रहती हैं, अतः कल्याणकामी मनुष्य को चाहिये कि भोजन का प्रथम भाग देकर सदा ही उनकी पूजा किया करे। भीष्म जी कहते हैं राजन! इस प्रकार शुक्राचार्य ने असुरराज बलि को यह प्रसंग सुनाया और मनु ने तपस्वी सुवर्ण को इसका उपदेश दिया। तत्पश्चात् तपस्वी सुवर्ण ने नारद जी को और नारद जी ने मुझे धूप, दीप आदि के दान के गुण बताये। महातेजस्वी पुत्र! तुम भी इस विधि को जानकर इसी के अनुसार सब काम करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में सुवर्ण और मनु का संवाद विषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय समाप्त हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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