षण्णवत्यधिकशततम (196) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: षण्णवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डव सेना का युद्ध के लिये प्रस्थान वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! इसी प्रकार कुन्तीनन्दन धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने भी धृष्टद्युम्न आदि वीरों को युद्ध के लिये जाने की आज्ञा दी। चेदि, काशि और करूषदेशों के अधिनायक दृढ़ पराक्रमी शत्रुनाशक सेनापति धृष्टकेतु को भी प्रस्थान करने का आदेश दिया। विराट, द्रुपद, सात्यकि, शिखण्डी, महाधनुर्धर पाञ्चालवीर युधामन्यु और उत्तमौजा को भी राजा का आदेश प्राप्त हुआ। वे महाधनुर्धर शूरवीर विचित्र कवच और तपाये हुए सोने के कुण्डल धारण किये वेदी पर घी की आहुति से प्रज्वलित हुए अग्निदेव के समान तथा आकाश में प्रकाशित होने वाले ग्रहों की भाँति शोभा पा रहे थे। तदनन्तर योग्यतानुसार सम्पूर्ण सेना का समादर करके नरश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने उन सैनिकों को प्रस्थान करने की आज्ञा दी और सेना तथा सवारियों सहित उन महामना नरेशों को उत्तमोत्तम खाने-पीने की वस्तुएं देने की आज्ञा दी। उनके साथ जो भी हाथी, घोडे़, मनुष्य और शिल्पजीवी पुरुष थे, उन सबके लिये भोजन प्रस्तुत करने का आदेश दिया। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्न को आगे करके अभिमन्यु, बृहन्त तथा द्रौपदी के पांचों पुत्र- इन सबको प्रथम सेनादल के साथ भेजा। भीमसेन, सात्यकि तथा पाण्डुनन्दन अर्जुन को युधिष्ठिर ने द्वितीय सैन्य समूह का नेता बनाकर भेजा। वहाँ हर्ष में भरे हुए कुछ योद्धा सवारियों पर युद्ध की सामग्री चढा़ते, कुछ इधर-उधर जाते और कुछ लोग कार्यवश दौड़-धूप करते थे। उन सबका कोलाहल मानो स्वर्गलोक को छूने लगा। तत्पश्चात राजा विराट और द्रुपद को साथ ले अन्यान्य भूपालों सहित स्वयं राजा युधिष्ठिर चले। भयंकर धनुर्धरों से भरी हुई और धृष्टद्युम्न के द्वारा सुरक्षित होकर कहीं ठहरती और कहीं आगे बढ़ती हुई वह पाण्डव सेना कहीं निश्चल और कहीं प्रवाहशील जल से भरी गंगा के समान दिखायी देती थी। थोड़ी दूर जाकर बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र के पुत्रों के बौद्धिक निश्चय में भ्रम उत्पन्न करने के लिये अपनी सेना का दुबारा संगठन किया। पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर ने द्रौपदी के महाधनुर्धर पुत्र, अभिमन्यु, नकुल, सहदेव, समस्त प्रभद्रक वीर, दस हजार घुड़सवार, दो हजार हाथीसवार, दस हजार पैदल तथा पांच सौ रथी- इनके प्रथम दुर्धर्ष दल को भीमसेन की अध्यक्षता में दे दिया। बीच के दल में राजा ने विराट, जयत्सेन तथा पाञ्चालदेशीय महारथी युधामन्यु और उत्तमौजा को रखा। हाथों में गदा और धनुष धारण किये से दोनों वीर (युधामन्यु-उत्तमौजा) बड़े पराक्रमी और मनस्वी थे। उस समय इन सबके मध्यभाग में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन सेना के पीछे-पीछे जा रहे थे। उस समय जो योद्धा पहले कभी युद्ध कर चुके थे, वे आवेश में भरे हुए थे। उनमें बीस हजार घोडे़ ऐसे थे जिनकी पीठ पर शौर्यसम्पन्न वीर बैठे हुए थे। इन घुड़सवारों के साथ पांच हजार गजारोही तथा बहुत से रथी भी थे। धनुष, बाण, खड्ग और गदा धारण करने वाले जो पैदल सैनिक थे, वे सहस्रों की संख्या में सेना के आगे और पीछे चलते थे। जिस सैन्य-समुद्र में स्वयं राजा युधिष्ठिर थे, उसमें बहुत-से भूमिपाल उन्हें चारों ओर से घेरकर चलते थे। भारत! उसमें एक हजार हाथीसवार, दस हजार घुड़सवार, एक हजार रथी और कई सहस्र पैदल सैनिक थे। नृपश्रेष्ठ! अपनी विशाल सेना के साथ चेकितान तथा चेदिराज धृष्टकेतु भी उन्हीं के साथ जा रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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