महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 79 श्लोक 1-12

एकोनाशीतितम (79) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


ऋत्विजों के लक्षण, यज्ञ और दक्षिणा का महत्त्व तथा तप की श्रेष्ठता


युधिष्ठिर ने पूछा- राजेन्द्र! वक्ताओं में श्रेष्ठ पितामह! ऋत्विजों की उत्पत्ति किस निमित्त से हुई है? उनके स्वभाव कैसे होने चाहिये? तथा वे किस- किस प्रकार के होते हैं? मुझे ये सब बातें बताइये।

भीष्मजी ने कहा- राजन! जो ब्राह्यण छनदः शास्त्र, ’ऋक् ’साम‘ और ’यजुः‘ नामक तीनों वेद तथा ऋषियों के रचे हुए स्मृति और दर्शनशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे ही ‘ऋत्विज’ होने योग्य हैं, उन ऋत्विजों का मुख्य आचार है -राजा के लिये ‘शान्ति’ ‘पौष्टिक’ आदि कर्मों का अनुष्ठान। जो सदा एकमात्र यजमान के ही हित-साधन में तत्पर रहने वाले , धीर, प्रियवादी, एक-दूसरे के सुहृद् तथा सब ओर समान दृष्टि रखने वाले हैं, वे ही ऋत्विज् होने योग्य हैं। जिनमें क्रूरता का सर्वथा अभाव है , जो सत्य भाषण करने वाले और सरल हैं, जो व्याज नहीें लेते तथा जिनमें द्रोह और अभिमान का अभाव हैं, जिनमें लज्जा, सहनशीलता, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि गुण देखे जाते हैं, वे ही पुरोहित कहलाते हैं। इसी तरह जो बुद्धिमान्, सत्य को धारण करने-वाला, इन्द्रिय सयंमी, किसी भी प्राणी की हिंसा न करने वाला तथा राग-द्वेष आदि दोषों से दूर रहने वाला है, जिसके शास्त्रज्ञान, सदाचार और कुल-ये तीनों अत्यन्त शुद्ध एवं निर्दोष हैं जो अहिंसक और ज्ञान विज्ञान से तृप्त है, वही ब्रह्मा के आसन पर बैठने का अधिकारी है। तात! ये सभी महान् ऋत्विज् यथा योग्य सम्मान के पात्र हैं।

युधिष्ठिर ने कहा- भारत! यह जो यज्ञसम्बन्धी दक्षिणा विषय में वेदवाक्य उपलब्ध होता है कि ’यह भी देना चाहिये, यह भी देना चाहिये’ यह वाक्य किसी सीमित वस्तु पर अवलम्बित नहीं हैं। अतः दक्षिणा में दिये जाने वाले धन के विषय में जो यह शास्त्र-वचन है, यह आपात्कालिक धर्मशास्त्र के अनुसार नहीं है। मेरी समझ में तो यह शास्त्र की आज्ञा भयंकर है; क्योंकि यह इस बात की ओर नहीं देखती कि दाता में कितने दान की शक्ति है। दूसरी ओर वेद की यह आज्ञा भी सुनी जाती है कि प्रत्येक श्रद्धालु पुरुष को यज्ञ करना चाहिये। यदि दरिद्र श्रद्धा के बल पर यज्ञ में प्रवृत हो और उचित दक्षिणा न दे सके तो वह यज्ञ मिथ्या भाव से युक्त होगा; उस दशा में उसकी न्यूनता की पूर्ति श्रद्धा कैसे कर सकेगी?

भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर! वेदों की निन्दा करने से, शठतापूर्ण बर्ताव से तथा छल-कपट से कोई भी महान पद नहीं पाता है; अतः तुम्हारी बुद्धि ऐसी न हो। तात! दक्षिणा यज्ञों का अंग है। वही वेदोक्त यज्ञों का विस्तार एवं उनमें न्यूनता की पूर्ति करने वाली है। दक्षिणाहीन यज्ञ किसी प्रकार भी यजमान का उद्धार नहीं कर सकते। जहाँ धनी और दरिद्र की शक्ति का प्रश्न है, उधर भी शास्त्र की दृष्टि है ही। दोनों के लिये समान दक्षिणा नहीं रखी गयी है। (दरिद्र की) शक्ति को पूर्णपात्र से मापा गया है। अर्थात् जहाँ धनी के लिये बहुत धन देने का विधान है, वहाँ दरिद्र के लिये एक पूर्णपात्र ही दक्षिणा में देने का विधान कर दिया है; अतः तात! ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों के लोगों को अवश्य ही विधिपूर्वक यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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