महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-20

षट्सप्ततितम (76) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: षट्सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
कच का शिष्‍यभाव से शुक्राचार्य और देवयानी की सेवा में संलग्न होना और अनेक कष्ट सहने के पश्‍चात् मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना

जनमेजय ने पूछा- तपोधन! हमारे पूर्वज महाराज ययाति ने, जो प्रजापति से दसवीं पीढ़ी में उत्‍पन्न हुए थे, शुक्राचार्य की अत्‍यन्‍त दुर्लभ पुत्री देवयानी को पत्नी रुप में कैसे प्राप्त किया? मैं इस वृत्तान्‍त को विस्‍तार से सुनना चाहता हूँ। आप मुझसे सभी वंश-प्रवर्तक राजाओं को क्रमश: पृथक-पृथक वर्णन कीजिये। वैशम्पायन जी ने कहा- जनमेजय! राजा ययाति देवराज इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी थे। पूर्वकाल में शुक्राचार्य और वृषपर्वा ने ययाति का अपनी-अपनी कन्‍या के पति रूप में जिस प्रकार वरण किया, वह प्रसंग तुम्‍हारे पूछने पर मैं तुमसे कहूंगा। साथ ही यह भी बताऊंगा कि नहुषनन्‍दन ययाति तथा देवयानी का संयोग किस प्रकार हुआ। एक समय चराचर प्राणियों सहित समस्‍त त्रिलोकी के ऐश्वर्य के लिये देवताओं और असुरों में परस्‍पर बड़ा भारी संघर्ष हुआ। उसमें विजय पाने की इच्‍छा से देवताओं ने अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्‍पति का पुरोहित के पद पर वरण किया और दैत्‍यों ने शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया। वे दोनों ब्राह्मण सदा आपस में बहुत लोग-डाट रखते थे। देवताओं ने उस युद्ध में आये हुए जिन दानवों को मारा था, उन्‍हें शुक्राचार्य ने अपनी संजीविनी विद्या के बल से पुन: जीवित कर दिया। अत: वे पुन: उठकर देवताओं से युद्ध करने लगे। परंतु असुरों ने युद्ध के मुहाने पर जिन देवताओं को मारा था, उन्‍हें उदार बुद्धि बृहस्‍पति जीवित न कर सके। क्‍योंकि शक्तिशाली शुक्राचार्य जिस संजीविनी विद्या को जानते थे, उसका ज्ञान बृहस्‍पति को नहीं था। इससे देवताओं को बड़ा विषाद हुआ।

इससे देवता शुक्राचार्य के भय से उद्विग्न हो उस समय बृहस्‍पति के ज्‍येष्ठ पुत्र कच के पास जाकर बोले। ‘ब्रह्मन्! हम आपके सेवक हैं। आप हमें अपनाइये और हमारी उत्तम सहायता कीजिये। अमित तेजस्‍वी ब्राह्मण शुक्राचार्य के पास जो मृतसंजीवनी विद्या है, उसे शीघ्र सीखकर यहाँ ले आइये। इससे आप हम देवताओं के साथ यज्ञ में भाग प्राप्त कर सकेंगे। राजा वृषवर्षा के समीप आपको विप्रवर शुक्राचार्य का दर्शन हो सकता है। वहाँ रहकर वे दानवों की रक्षा करते हैं। जो दानव नहीं हैं, उनकी रक्षा नहीं करते। आपकी अभी नयी अवस्‍था है, अत: आप शुक्राचार्य की आराधना (करके उन्‍हें प्रसन्न) करने में समर्थ हैं। उन महात्‍मा की प्‍यारी पुत्री का नाम देवयानी है, उसे अपनी सेवाओं द्वारा आप ही प्रसन्न कर सकते हैं। दूसरा कोई इसमें समर्थ नहीं है। अपने शील-स्‍वभाव, उदारता, मधुर व्‍यवहार, सदाचार तथा इन्द्रिय संयम द्वारा देवयानी को संतुष्ट कर लेने पर आप निश्चय ही उस विद्या को प्राप्त कर लेंगे’। तब ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर बृहस्‍पति पुत्र कच देवताओं से सम्‍मानित हो वहाँ से वृषवर्षा के समीप गये। राजन्! देवताओं के भेजे हुए कच तुरंत दानवराज वृषवर्षा के नगर में जाकर शुक्राचार्य से मिले और इस प्रकार बोले- ‘भगवन्! मैं अंगिरा ऋषि का पौत्र तथा साक्षात् बृहस्‍पति का पुत्र हूँ। मेरा नाम कच है। आप मुझे अपने शिष्‍य के रुप में ग्रहण करें। ब्रह्मन्! आप मेरे गुरु हैं। मैं आपके समीप रहकर एक हजार वर्षों तक उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन करुंगा। इसके लिये आप मुझे अनुमति दें।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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