महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-19

अष्टषष्टितम (68) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


तिल, जल, दीप तथा रत्‍न आदि के दान का माहात्‍म्‍य – धर्मराज और ब्राह्मण का संवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! तिलों के दान का कैसा फल होता है? दीप, अन्न और वस्त्र के दान की महिमा का भी पुनः मुझसे वर्णन कीजिये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में ब्राह्मण और यम के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। नरेश्‍वर! मध्यदेश में गंगा-यमुना के मध्य भाग में यामुन पर्वत के निम्न स्थल में ब्राह्मणों का एक विशाल एवं रमणीय ग्राम था, जो लोगों में पर्णशाला नाम से विख्यात था। वहाँ बहुत से विद्वान ब्राह्मण निवास करते थे। एक दिन यमराज ने काला वस्त्र धारण करने वाले एक दूत से, जिसकी आंखें लाल, रोएँ ऊपर को उठे हुए और पैरों की पिंडली, आंख और नाक कौए के समान थीं, कहा- 'तुम ब्राह्मणों के उस ग्राम में चले जाओ और जाकर अगस्त्य गोत्री शर्मी नामक शमपरायण विद्वान अध्यापक ब्राह्मण को जो आवरणरहित है, यहाँ ले आओ। उसी गांव में उसी के समान एक दूसरा ब्राह्मण भी रहता है। वह शर्मी के ही गोत्र का है। उसके अगल-बगल में ही निवास करता है। गुण, वेदाध्ययन और कुल में भी शर्मी के समान है। संतानों की संख्या तथा सदाचार के पालन में भी वह बुद्धिमान शर्मी के ही तुल्य है। तुम उसे यहाँ न ले आना। मैंने जिसे बताया है, उसी ब्राह्मण को तुम ले आओ; क्योंकि मुझे उसकी पूजा करनी है।'

उस यमदूत ने वहाँ जाकर यमराज की आज्ञा के विपरीत कार्य किया। वह आक्रमण करके उसी ब्राह्मण को उठा लाया, जिसके लिये यमराज ने मना कर दिया था। शक्तिशाली यमराज ने उठकर उसके लाये हुए ब्राह्मण की पूजा की और दूत से कहा- 'इसको तुम ले जाओ और दूसरे को यहाँ ले आओ।' धर्मराज के इस प्रकार आदेश देने पर अध्ययन से ऊबे हुए उस समागत ब्राह्मण ने उनसे कहा- 'धर्म से कभी च्युत न होने वाले देव। मेरे जीवन का जो समय शेष रह गया है, उसमें मैं यहीं रहूँगा।'

यमराज ने कहा- 'ब्राह्मण! मैं काल के विधान को किसी तरह नहीं जानता। जगत में जो पुरुष धर्माचरण करता है, केवल उसी को मैं जानता हूँ। धर्म से कभी च्युत न होने वाले महातेजस्वी ब्राह्मण। तुम अभी अपने घर को चले जाओ और अपनी इच्छा के अनुसार सब कुछ बताओ। मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ?'

ब्राह्मण ने कहा- साधु शिरोमणे! संसार में जो कर्म करने से महान पुण्य होता हो, वह मुझे बताइये; क्योंकि समस्त त्रिलोकी के लिये धर्म के विषय में आप ही प्रमाण हैं।'

यम ने कहा- ब्रह्मर्षें! तुम यथार्थ रूप से दान की उत्तम विधि सुनो। तिल का दान सब दानों में उत्तम है। वह यहाँ अक्षय पुण्यजनक माना गया है। द्विज श्रेष्ठ! अपनी शक्ति के अनुसार तिलों का दान अवश्‍य करना चाहिये। नित्य दान करने से तिल दाता की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। श्राद्ध में विद्वान पुरुष तिलों की प्रशंसा करते हैं। यह तिलदान सबसे उत्तम दान है। अतः तुम शास्त्रीय विधि के अनुसार ब्राह्मणों को तिलदान देते रहो। वैशाख की पूर्णिमा को ब्राह्मणों के लिये तिलदान दें, तिल खायें और सदा तिलों का ही उवटन लगायें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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