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महाभारत: उद्योग पर्व: शततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
- हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन
- नारद जी कहते हैं- मातले! यह हिरण्यपुर नामक श्रेष्ठ एवं विशाल नगर है, जहाँ सैकड़ों मायाओं के साथ विचरने वाले दैत्यों और दानवों का निवास स्थान है। (1)
- असुरों के विश्वकर्मा मयने अपने मानसिक संकल्प के अनुसार महान प्रयत्न करके पाताल लोक के भीतर इस नगर का निर्माण किया है। (2)
- यहाँ सहसत्रों मायाओं का प्रयोग करने वाले महान बल-पराक्रम से सम्पन्न वे शूरवीर दानव निवास करते है, जिन्हें पूर्वकाल में अवध्य होने का वरदान प्राप्त हो चुका है। (3)
- इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर तथा और कोई देवता भी इन्हें वश में नहीं कर सकता। (4)
- मातले! भगवान विष्णु के चरणों से उत्पन्न हुए कालखंज नामक असुर तथा ब्रहमा जी के पैरों से प्रकट हुए बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले, भयंकर वेग से युक्त, प्रगतिशील पवन के समान पराक्रमी एवं मायाबल से सम्पन्न नैऋर्त और यातुधान इस नगर में निवास करते हैं। (5-6)
- यहीं निवात कवच नामक दानव निवास करते हैं, जो युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ते हैं। तुम तो जानते ही हो कि इन्द्र भी इन्हें पराजित करने में समर्थ नहीं हो रहे हैं। (7)
- मातले! तुम, तुम्हारा पुत्र गोमुख तथा पुत्र सहित शचीपति देवराज इन्द्र अनेक बार इनके सामने से मैदान छोड़कर भाग चुके हैं। (8)
- मातले! देखो, इनके ये सोने और चांदी के भवन कितनी शोभा पा रहे हैं। इनका निर्माण शिल्पशास्त्रीय विधान के अनुसार हुआ है तथा ये सभी महल एक दूसरे से सटे हुए हैं। (9)
- इन सबमें वैदूर्यमणि जड़ी हुई है, जिससे इनकी विचित्र शोभा हो रही है। स्थान–स्थान पर मूँगों से सुसज्जित होने के कारण इनका सौन्दर्य अधिक बढ़ गया है। आक के फूल और स्फटिक मणि के समान ये उज्ज्वल दिखाई देते हैं तथा उत्तम हीरों से जटित होने के कारण उनकी दीप्ति अधिक बढ़ गयी है। (10)
- इनमें से कुछ तो मिट्टी के बने हुए-से जान पड़ते हैं; कुछ पद्मरागमणि के द्वारा निर्मित प्रतीत होते हैं, कुछ मकान पत्थरों के और कुछ लकड़ियों के बने हुए-से दिखाई देते हैं। (11)
- ये सूर्य तथा प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे हैं। मणियों की झालरों से इनकी विचित्र छटा दृष्टिगोचर हो रही है। ये सभी भवन ऊंचे और घने हैं। (12)
- हिरण्यपुर के ये भवन कितने सुंदर हैं और किन किन द्रव्यों से बने हुए हैं, इसका निरूपण नहीं किया जा सकता। अपने उत्तम गुणों के कारण इनकी बड़ी प्रसिद्धि है। लंबाई-चौड़ाई तथा सर्वगुणसंपन्नता की दृष्टि से ये सभी प्रशंसा के योग्य है। (13)
- देखो, दैत्यों के उद्यान एवं क्रीडास्थान कितने सुंदर हैं! इनकी शय्याएँ भी इनके अनुरूप ही हैं। इनके उपयोग में आने वाले पात्र और आसन भी रत्न जटित एवं बहुमूल्य हैं। (14)
- यहाँ के पर्वत मेघों की घटा के समान जान पड़ते हैं। वहाँ से जल के झरने गिर रहे हैं। इन वृक्षों की ओर दृष्टिपात करो, ये सभी इच्छानुसार फल और फूल देने वाले तथा कामचारी हैं। (15)
- मातले! यहाँ भी तुम्हें कोई सुंदर वर प्राप्त हो सकता है। अथवा तुम्हारी राय हो, तो इस भूमि की किसी दूसरी दिशा की ओर चलें। (16)
- तब ऐसी बातें करने वाले नारद जी से मातलि ने कहा- 'देवर्षे! मुझे कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जो देवताओं को अप्रिय लगे। (17)
- 'यद्यपि देवता और दानव परस्पर भाई ही हैं, तथापि इनमें सदा वैरभाव बना रहता है। ऐसी दशा में मैं शत्रुपक्ष के साथ अपनी पुत्री का संबंध कैसे पसंद करूंगा ? (18)
- इसलिए अच्छा यही होगा कि हम लोग किसी दूसरी जगह चलें। मैं दानवों से साक्षात्कार भी नहीं कर सकता। मैं यह भी जानता हूँ कि आपके मन में हिंसात्मक कार्य (युद्ध) का अवसर उपस्थित करने की प्रबल इच्छा रहती है।' (19)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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