महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 177 श्लोक 1-22

सप्तसप्तत्यधिकशततम (177) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

अकृतव्रण और परशुरामजी की अम्बा से बातचीत

  • अकृतव्रण ने कहा- भद्रे! तुम्हें दु:ख देने वाले दो कारण भीष्‍म और शाल्व उपस्थित हैं। वत्से! तुम इन दोनों में से किससे बदला लेने की इच्छा रखती हो? यह मुझे बताओ। (1)
  • भद्रे! यदि तुम्हारा यह विचार हो कि सौभपति शाल्वराज को ही विवाह के लिये विवश करना चाहिये तो महात्मा परशुराम तुम्हारे हित की इच्छा से शाल्वराज को अवश्‍य इस कार्य में नियुक्त करेंगे। (2)
  • अथवा यदि तुम गंगानन्दन भीष्‍म को बुद्धिमान परशुरामजी के द्वारा युद्ध में पराजित देखना चाहती हो तो वे महात्मा भार्गव यह भी कर सकते हैं। (3‌)
  • शुचिस्मिते! सृंजयवंशी राजा होत्रवाहन की बात सुनकर और अपना विचार प्रकट करके जो कार्य तुम्हें अत्यन्त आवश्‍यक प्रतीत हो उसका आज ही विचार कर लो। (4)
  • अम्बा बोली- भगवन भीष्‍म बिना जाने-बुझे मुझे हर लाये थे। ब्रह्मन्! उन्हें इस बात का पता नहीं था कि मेरा मन शाल्व में अनुरक्त है। (5)
  • इस बात पर मन-ही-मन विचार करके आप ही कुछ निश्‍चय करें और जो न्यायासंगत प्रतीत हो, वही कार्य करें। (6)
  • ब्रह्मन्! कुरुश्रेष्‍ठ भीष्‍म के साथ अथवा शाल्वराज के साथ अथवा दोनों के ही साथ जो उचित बर्ताव हो, वह करें। (7)
  • मैंने अपने दु:ख के इस मूल कारण को यथार्थ रूप से निवेदन कर दिया। भगवन! अब आप अपनी युक्ति से ही इस विषय में न्यायोचित कार्य करें। (8)
  • अकृतव्रण बोले- भद्रे! तुम जो इस प्रकार धर्मानुकूल बात कहती हो, यही तुम्हारे लिये उचित है। वरवर्णिनि! अब मेरी यह बात सुनो। (9)
  • भीरू! यदि गंगानन्दन भीष्‍म तुम्हें हस्तिनापुर न ले जाते तो राजा शाल्व परशुरामजी के कहने पर तुम्हें आदरपूर्वक स्वीकार कर लेता। (10)
  • परंतु भद्रे! भीष्‍म तुम्हें जीतकर अपने साथ ले गये। भाविनि! सुमध्‍यमे! यही कारण है कि शाल्वराज के मन में तुम्हारे प्रति संशय उत्पन्न हो गया है। (11)
  • भीष्‍म के अपने पुरुषार्थ का अभिमान है और वे इस समय अपनी विजय से उल्लसित हो रहे हैं। अत: भीष्‍म से ही बदला लेना तुम्हारे लिये उचित होगा। (12)
  • अम्बा बोली- ब्रह्मन्! मेरे मन में भी सदा यह इच्छा बनी रहती है कि मैं युद्ध में भीष्‍म का वध करा दूं। महाबाहो! आप भीष्‍म को या शाल्वराज को जिसे भी दोषी समझते हों, उसी को दण्‍ड दीजिये, जिसके कारण मैं अत्यन्त दु:ख में पड़ गयी हूँ। (13-14)
  • भीष्‍मजी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ! इस प्रकार बातचीत करते हुए उन सब लोगों का वह दिन बीत गया। सुखदायिनी सरदी, गर्मी और हवा से युक्त रात भी समाप्त हो गयी। (15)
  • राजन! तदनन्तर अपने शिष्‍यों से घिरे हुए जटावल्‍कलधारी मुनिवर परशुरामजी वहाँ प्रकट हुए। वे अपने तेज के कारण प्रज्वलित से हो रहे थे। (16)
  • नृपश्रेष्‍ठ! उनके हृदय में दीनता का नाम नहीं था। उन्होंने अपने हाथों में धनुष, खड्ग और फरसा ले रखे थे। उनके हृदय से रजोगुण दूर हो गया था, वे राजा सृंजय के निकट आये। (17)
  • राजन! उन्हें देखकर वे तपस्वी मुनि, महातपस्वी नरेश तथा वह तपस्विनी राजकन्या- ये सब-के-सब हाथ जोड़कर खडे़ हो गये। (18)
  • फिर उन्होंने स्वस्थचित्त होकर मधुपर्क द्वारा भार्गव परशुरामजी का पूजन किया। विधिपूर्वक पूजित होने पर वे उन्हीं के साथ वहाँ बैठे। (19)
  • भारत! तत्पश्‍चात परशुरामजी और सृंजय होत्रवाहन दोनों मित्र पहले की बीती बातें कहते हुए एक जगह बैठ गये। (20)
  • बातचीत के अन्त में राजर्षि होत्रवाहन ने महाबली भृगुश्रेष्‍ठ परशुरामजी से मधुर वाणी में उस समय यह अर्थयुक्त वचन कहा- (21)
  • ‘कार्य साधन कुशल प्रभो! परशुराम! यह मेरी पुत्री की पुत्री काशिराज की कन्या है। इसका कुछ कार्य है, उसे आप इसी के मुंह से ठीक-ठीक सुन लें।' (22)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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