द्विसप्ततितम (72) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण बोला- मैंने मनुष्यों में जिन सुन्दरी स्त्रियों के नाम सुने हैं, उनमें से किसी ने भी ऐसा अद्भुत कार्य किया हो, यह मेरे सुनने में नहीं आया। कुन्ती के पुत्र धृतराष्ट्र के पुत्र सभी एक-दूसरे के प्रति अत्यन्त क्रोध से भरे हुए थे, ऐसे समय में यह द्रुपदकुमारी कृष्णा इन पाण्डवों को परम शान्ति देने वाली बन गयी। पाण्डव लोग नौका और आधार से रहित जल में गोते खा रहे थे अर्थात् संकट के अथाह सागर में डूब रहे थे, किंतु यह पांचालराजकुमारी इनके लिये पार लगाने वाली नौका बन गयी। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! कौरवों के बीच में कर्ण की यह बात सुनकर अत्यन्त असहनशील भीमसेन मन-ही-मन बहुत दुखी होकर बोले- ‘हाय! पाण्डवों को उबारने वाली एक स्त्री हुई’। भीमसेन ने कहा- महर्षि देवल का कथन है कि पुरुष में तीन प्रकार की ज्योतियाँ हैं- संतान, कर्म और ज्ञान; क्योंकि इन्हीं से सारी प्रजा की सृष्टि हुई। जब यह शरीर प्राणरहित होकर शून्य एवं अपवित्र हो जाता है तथा समस्त बन्धु-बान्धव उसे त्याग देते हैं, तब ये ही ज्ञान आदि तीनों ज्योतियाँ (परलोकगत) पुरुष के उपयोग में आती हैं। धंनजय! हमारी धर्म पत्नी द्रौपदी के शरीर का बलपूर्वक स्पर्श करके दु:शासन ने उसे अपवित्र कर दिया है, इससे हमारी संतानरूप ज्योति नष्ट हो गयी। जो पराये पुरुष से छू गयी, उस स्त्री से उत्पन्न संतान किस काम की होगी? अर्जुन बोले- भारत! (द्रौपदी सती है। उसके विषय में आप ऐसी बात न कहें। दु:शासन ने अवश्य नीचता की है, किंतु) श्रेष्ठ पुरुष नीच पुरुषों द्वारा कही या न कही गयी कड़वी बातों का कभी उत्तर नहीं देते। प्रतिशोध का उपाय जानते हुए भी सत्पुरुष दूसरों के उपकारों को ही याद रखते है, उनके द्वारा किये हुए वैर को नहीं। उन साधु पुरुषों को स्वयं सबसे सम्मान प्राप्त होता रहता है। भीमसेन ने (राजा युधिष्ठिर से) कहा- भरतवंशी राजराजेश्वर! (यदि आपकी आज्ञा हो, तो) यहाँ आये हुए इन सब शत्रुओं मैं यहीं समाप्त कर दूँ। और यहाँ से बाहर निकलकर इनके मूल का भी नाश कर डालूँ। भारत! अब यहाँ विवाद या उत्तर-प्रत्युत्तर करने की हमें क्या आवश्यकता है? मैं आज ही इन सबको यमलोक भेज देता हूँ, आप इस सारी पृथ्वी का शासन कीजिये। अपने छोटे भाइयों के साथ खडे़ हुए भीमसेन उपर्युक्त बात कहकर शत्रुओं की ओर बार-बार देखने लगे; मानों सिंह मृगों के समूह में खड़ा हो उन्हीं की ओर देख रहा हो। अनायास ही महान् पराक्रम कर दिखाने वाले अर्जुन शत्रुओं-की ओर देखने वाले भीमसेन को बार-बार शान्त कर रहे थे, परंतु पराक्रमी महाबाहु भीमसेन अपने भीतर धधकती हुई क्रोधाग्नि से जल रहे थे। राजन्! उस समय क्रोध में भरे हुए भीमसेन की श्रवणादि इन्द्रियों के छिद्रों तथा रोमकूपों से धूम और चिनगारियों-सहित आग की लपटें निकल रही थीं। भौंहें तनी होने के कारण प्रलयकाल में मूर्तिमान् यमराज की भाँति उनके भयानक मुख की ओर देखना भी कठिन हो रहा था। भारत! तब विशाल भुजाओं से सुशोभित होने वाले भीमसेन को अपने एक हाथ से रोकते हुए युधिष्ठिर ने कहा- ‘ऐसा न करो, शान्तिपूर्वक बैठ जाओ’। उस समय महाबाहु भीम के नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे। उन्हें रोककर राजा युधिष्ठिर हाथ जोड़े हुए अपने ताऊ महाराज धृतराष्ट्र के पास गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में भीमसेन का क्रोधविषयक बाहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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