चतुदर्शाधिकशततम (114) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: चतुदर्शाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र ने कहा- संजय! मेरी सेना इस प्रकार अनेक गुणों से सम्पन्न है और इस तरह अधिक संख्या मे इसका संग्रह किया गया है। पांडव सेना में इसका संग्रह किया गया है। पाण्डव सेना की अपेक्षा यह प्रबल भी है। इसकी व्यूह रचना भी इस प्रकार शास्त्रीय विधि के अनुसार की जाती है और इस तरह बहुत-से योद्धाओं का समूह जुट गया है। हम लोगों ने सदा अपनी सेना का आदर-सत्कार किया है तथा वह हमारे प्रति सदा से ही अनुरक्त भी है। हमारे सैनिक युद्ध की कला में बढ़े-चढ़े हैं। हमारा सैन्य-समुदाय देखने में अद्भुत जान पड़ता है तथा इस सेना में वे ही लोग चुन-चुनकर रखे गये हैं, जिनका पराक्रम पहले से ही देख लिया गया है। इसमें न तो कोई अधिक बूढ़ा हैं, न बालक हैं, न अधिक दुबला है और न बहुत ही मोटा है। उनका शरीर हल्का, सुडौल तथा प्राय: लंबा है। शरीर का एक-एक अवयव सारवान (सबल) तथा सभी सैनिक नीरोग एवं स्वस्थ्य है। इन सैनिकों का शरीर बंधे हुए कवच से आच्छादित है। इनके पास शस्त्र आदि आवश्यक सामग्रियों की बहुतायत है। ये सभी सैनिक शस्त्रग्रहण सम्बन्धी बहुत-सी विद्याओं में प्रवीण है। चढ़ने, उतरने, फैलने, कूद-कूदकर चलने, भली-भाँति प्रहार करने, युद्ध के लिये जाने और अवसर देखकर पलायन करने में भी कुशल है। हाथियों, घोड़ों तथा रथों पर बैठकर युद्ध करने की कला में सब लोगों की परीक्षा ली जा चुकी है और परीक्षा लेने के पश्चात उन्हें यथायोग्य वेतन दिया गया है। हमने किसी को भी गोष्ठी द्वारा बहकाकर, उपकार करके अथवा किसी सम्बन्ध के कारण सेना में भर्ती नहीं किया है। इनमें ऐसा भी कोई नहीं हैं, जिसे बुलाया न गया हो अथवा जिसे बेगार में पकड़कर लाया गया हो। मेरी सारी सेना की यही स्थिति है। इसमें सभी लोग कुलीन, श्रेष्ठ, हष्ट-पुष्ट उद्दण्डता शून्य, पहले से सम्मानित, यशस्वी तथा मनस्वी है। तात! हमारे मन्त्रों तथा अन्य बहुतेरे प्रमुख कार्यकर्ता जो पुण्यात्मा, लोकपालों के समान पराक्रमी और मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं, सदा इस सेना का पालन करके आये हैं। हमारा प्रिय करने की इच्छा वाले तथा सेना और अनुचरों सहित स्वेच्छा से ही हमारे पक्ष में आये हुए बहुत-से भूपालगण भी इसकी रक्षा में तत्पर रहते है। सम्पूर्ण दिशा में बहकर आयी हुई नदियों से परिपूर्ण होने वाले महासागर के समान हमारी यह सेना अगाध और अपार है। पक्षरहित एवं पक्षियों के समान तीव्र वेग से चलने-वाले रथों और घोड़ों से यह भरी हुई है। मण्डस्थल से बहाने वाले गजराजों द्वारा आवृत यह मेरी विशाल वाहिनी यदि शत्रुओं द्वारा मारी गयी हैं तो इसमें भाग्य के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है। संजय! मेरी सेना भयंकर समुन्द्र के समान जान पड़ती है। योद्धा ही इसे अक्षम्य जल हैं, वाहन ही इसकी तरंगमालाएं हैं, क्षेपणीय, खड्ग, गदा, शक्ति, बाण और प्राप्त आदि अस्त्र–शस्त्र इसमें मछलियों के समान भरे हुए हैं। ध्वजा और आभूषणों के समुदाय इसके भीतर रत्नों के समान संचित है। दौड़ते हुए वाहन ही वायु के वेग हैं जिनसे यह सैन्य समुद्र कम्पित एवं क्षुब्ध-सा जान पड़ता है। द्रोणाचार्य ही इसकी पाताल तक फैली हुर्इ गहराई हैं। कृतवर्मा इसमें महान ह्रद के समान हैं, जलसंघ विशाल ग्राह है और कर्णरुपी चन्द्रमा के उदय से यह सदा उद्वेलित होता रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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