महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-18

षट्सप्ततितम (76) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन का उत्तर
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वसुदेव नन्दन भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर सदा क्रोध और अमर्ष में भरे रहने वाले भीमसेन पहले सुशिक्षित घोड़ों की भाँति सरपट भागने लगे, जल्दी-जल्दी बोलने लगे फिर धीरे धीरे बोले। (1)
  • भीमसेन ने कहा- अच्युत! मैं करना तो कुछ और चाहता हूँ, परंतु आप समझ कुछ और ही रहे हैं। दशार्हनन्दन! आप दीर्घकाल तक मेरे साथ रहे हैं। अत: मेरे विषय में यह सच्ची जानकारी रखते ही होंगे कि मेरा युद्ध में अत्यंत अनुराग है और मेरा पराक्रम भी मिथ्या नहीं है। (2)
  • अथवा यह भी संभव है कि बिना नौका के अगाध सरोवर में तैरने वाले पुरुष को जैसे उसकी गहराई का पता नहीं चलता, उसी तरह आप मुझे अच्छी तरह न जानते हों। इसलिए आप अनुचित वचनों द्वारा मुझ पर आक्षेप कर रहे हैं। (3)
  • माधव! मुझ भीमसेन को अच्छी तरह जानने वाला कोई भी मनुष्य मेरे प्रति ऐसे अयोग्य वचन, जैसे आप कह रहे हैं, कैसे कह सकता है? (4)
  • वृष्णिकुलनन्दन! इसलिए मैं आपसे अपने उस पौरुष तथा बल का वर्णन करना चाहता हूँ, जिसकी समानता दूसरे लोग नहीं कर सकते। (5)
  • यद्यपि स्वयं अपनी प्रशंसा करना सर्वथा नीच पुरुषों का ही कार्य है, तथापि आपने जो मेरे सम्मान के विपरीत बातें कहकर मेरा तिरस्कार किया है, उससे पीड़ित होकर मैं अपने बल का बखान करता हूँ। (6)
  • श्रीकृष्ण! आप इस भूतल और स्वर्गलोक पर दृष्टिपात करें। इन्हीं दोनों के भीतर ये समस्त प्रजाजन निवास करते हैं। ये दोनों सबके माता-पिता हैं। इन्हें अचल एवं अनंत माना गया है। ये दूसरों के आधार होते हुए भी स्वयं आधार शून्य हैं। (7)
  • यदि ये दोनों लोक सहसा कुपित होकर दो शिलाओं की भाँति परस्पर टकराने लगें, तो मैं चराचर प्राणियों सहित इन्हें अपनी दोनों भुजाओं से रोक सकता हूँ। (8)
  • लोहे के विशाल परिधों की भाँति मेरी इन मोटी भुजाओं का मध्यभाग कैसा है, यह देख लीजिये। मैं ऐसे किसी वीर पुरुष को नहीं देखता, जो इनके भीतर आकर फिर जीवित निकल जाये। (9)
  • जो मेरी पकड़ में आ जाएगा, उसे हिमालय पर्वत, विशाल महासागर तथा बल नामक दैत्य का विनाश करने वाले साक्षात वज्रधारी इंद्र– ये तीनों अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी नहीं बचा सकते। (10)
  • पांडवों के प्रति आततायी बने हुए इन समस्त क्षत्रियों को, जो युद्ध के लिए उद्यत हुए हैं, मैं नीचे पृथ्वी पर गिराकर पैरों तले रौंद डालूँगा। (11)
  • अच्युत! मैंने राजाओं को जिस प्रकार युद्ध में जीतकर अपने अधीन किया था, मेरे उस पराक्रम से आप अपरिचित नहीं हैं। (12)
  • जनार्दन! यदि कदाचित आप मुझे या मेरे पराक्रम को न जानते हों तो जब भयंकर संहारकारी घमासान युद्ध प्रारम्भ होगा, उस समय उगते हुए सूर्य की प्रभा के समान आप मुझे अवश्य जान लेंगे। (13)
  • पके हुए घाव को चाकू से चीरने या उकसाने वाले पुरुष के समान आप मुझे कठोर वचनों द्वारा तिरस्कृत क्यों कर रहे हैं ? (14)
  • मैं अपनी बुद्धि के अनुसार यहाँ जो कुछ कह रहा हूँ, उससे भी बढ़-चढ़कर मुझे समझें। जिस समय योद्धाओं से खचाखच भरे हुए युद्ध में भयानक मार-काट मचेगी, उस दिन मुझे देखियेगा। (15)
  • जब घमासान युद्ध में मैं कुपित होकर मतवाले हाथियों, रथियों तथा घुड़सवारों को धराशायी करना और फेंकना आरंभ करूंगा एवं दूसरे श्रेष्ठ क्षत्रिय वीरों का वध करने लगूँगा, उस समय आप और दूसरे लोग भी मुझे देखेंगे कि मैं किस प्रकार चुन-चुनकर प्रधान-प्रधान वीरों का संहार कर रहा हूँ। (16)
  • मेरी मज्जा शिथिल नहीं हो रही है और न मेरा हृदय ही काँप रहा है। मधुसूदन! यदि समस्त संसार अत्यंत कुपित होकर मुझ पर आक्रमण करे, तो भी उससे मुझे भय नहीं है; किन्तु मैंने जो शांति का प्रस्ताव किया है, यह तो केवल मेरा सौहार्द ही है। मैं दयावश सारे क्लेश सह लेने को तैयार हूँ और चाहता हूँ कि हमारे कारण भरतवंशियों का नाश न हो। (17-18)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवादयान पर्व में भीमसेन वाक्य संबंधी छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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