त्रयोविंशत्यधिकशततम (123) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- तात! मैं धर्म, अर्थ और काम के सम्बन्ध में आपका निश्चित मत सुनना चाहता हूँ। किन पर अवलम्बित होने पर लोकयात्रा का पूर्ण रुप से निर्वाह होता है? धर्म, अर्थ और काम का मूल क्या है? इन तीनों की उत्पति का कारण क्या है? ये कहीं एक साथ मिले हुए और कहीं पृथक-पृथक क्यों रहते हैं? भीष्म जी ने कहा- राजन! संसार में जब मनुष्यों का चित्त शुद्ध होता है और वे धर्मपूर्वक किसी अर्थ की प्राप्ति का निश्चय करके प्रवृत होते हैं, उस समय उचित काल, कारण तथा कर्मानुष्ठानवश धर्म, अर्थ और काम-तीनों एक साथ मिले हुए प्रकट होते हैं। इनमें धर्म सदा ही अर्थ की प्राप्ति का कारण है और काम अर्थ का फल कहलाता हैं, परंतु इन तीनों का मूल कारण है संकल्प और संकल्प है विषयरूप। सम्पूर्ण विषय पूर्णत: इन्द्रियों के उपभोग में आने के लिये है। यही धर्म, अर्थ और काम का मूल है, इससे निवृत्त होना ही ‘मोक्ष’ कहा जाता है। धर्म से शरीर की रक्षा होती हैं, धर्म का उपार्जन करने के लिये ही अर्थ की आवश्यकता बतायी गयी है। तथा काम का फल है रति। वे सभी रजोगुणमय हैं। ये धर्म आदि जिस प्रकार संनिकृष्ट अर्थात अपना वास्वतिक हित करने वाले हों, उसी रुप में इनका सेवन करे अर्थात इनको त्याग न करे, फिर स्वरूप से शरीर द्वारा त्याग करना तो दूर की बात है। केवल तप अथवा विचार के द्वारा ही उनसे अपने को मुक्त रखे अर्थात आसक्ति और फल का त्याग करके ही इन सब धर्म, अर्थ और काम का सेवन करना चाहिये। आसक्ति और फलेच्छा को त्यागकर त्रिवर्ग का सेवन किया जाय तो उसका पर्यवसान कल्याण में ही होता है। यदि मनुष्य उसे प्राप्त कर सके तो बड़े सौभाग्य की बात है। अर्थसिद्धि के लिये समझ-बूझकर धर्मानुष्ठान करने पर भी कभी अर्थ की सिद्धि होती हैं, कभी नहीं होती है। इसके सिवा, कभी दूसरे-दूसरे उपाय भी अर्थ के साधक हो जाते हैं और कभी अर्थसाधक कर्म भी विपरीत फल देने वाला हो जाता है। कभी धन पाकर भी मनुष्य अनर्थकारी कर्मों में प्रवृत हो जाता है और धन से भिन्न जो दूसरे-दूसरे साधन हैं, वे धर्म में सहायक हो जाते हैं। अत: धर्म से धन होता है और धन से धर्म, इस मान्यता के विषय में अज्ञानमयी निकृष्ट बुद्धि से मोहित हुआ मूढ़ मानव विश्वास नहीं रखता, इसलिये उसे दोनों का फल सुलभ नहीं होता। फल की इच्छा धर्म का मल हैं, संग्रहीत करके रखना अर्थ का मल है और अमोद-प्रमोद काम का मल हैं, परंतु यह त्रिवर्ग यदि अपने दोषों से रहित हो तो कल्याणकारक होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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