महाभारत वन पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-20

एकपंचाशत्तम (51) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


संजय का धृतराष्ट्र के प्रति श्रीकृष्णादि के द्वारा की हुई दुर्योधन के वध की प्रतिज्ञा का वृत्तान्त सुनाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- पुरुषरत्न जनमेजय! पाण्डवों का वह अद्भुत एवं अलौकिक चरित्र सुनकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र का मन चिन्ता और शोक में डूब गया। वे अत्यन्त खिन्न हो उठे और लंबी एवं गरम सांसें खींचकर अपने सारथि संजय को निकट बुलाकर बोले- ‘सूत! मैं बीते हुए द्यूतजनित घोर अन्याय का स्मरण करके दिन तथा रात में क्षणभर भी शांति नहीं पाता। मैं देखता हूं, पाण्डवों के पराक्रम असह्य हैं। उनमें शौर्य, धैर्य तथा उत्तम धारणशक्ति है। उन सब भाइयों में परस्पर अलौकिक प्रेम है। देवपुत्र महाभाग नकुल-सहदेव देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। वे दोनों ही पाण्डव युद्ध में प्रचण्ड हैं। उनके आयुध दृढ़ हैं। वे दूर तक निशाना मारते हैं। युद्ध के लिये उनका भी दृढ़ निश्चय है। वे दोनों ही बड़ी शीघ्रता से हस्त संचालन करते हैं। उनका क्रोध भी अत्यन्त दृढ़ है। वे सदा उद्योगशील और बड़े वेगवान् हैं। जिस समय भीमसेन और अर्जुन को आगे रखकर वे दोनों सिंह समान पराक्रमी और अश्विनीकुमारों के समान दुःसह वीर युद्ध के मुहाने पर खड़े होंगे, उसी समय मुझे अपनी सेना को कोई वीर शेष रहता नहीं दिखायी देता है।

संजय! देवपुत्र महारथी नकुल-सहदेव युद्ध में अनुपम हैं। कोई भी रथी उनका सामना नहीं कर सकता। अमर्ष में भरे हुए माद्रीकुमार द्रौपदी को दिये गये उस कष्ट को कभी क्षमा नहीं करेंगे। महान् धनुर्धर वृष्णिवंशी, महातेजस्वी पांचाल योद्धा और युद्ध में सत्यप्रतिज्ञ वासुदेव श्रीकृष्ण से सुरक्षित कुन्तीपुत्र निश्चय ही मेरे पुत्रों की सेना को भस्म कर डालेंगे। सूतनन्दन! बलराम और श्रीकृष्ण से प्रेरित वृष्णिवंशी योद्धाओं के वेग को युद्ध में समस्त कौरव मिलकर भी नहीं सह सकते। उनके बीच में जब भयानक पराक्रमी महान् धनुर्धर भीमसेन बड़े-बड़े वीरों का संहार करने वाली आकाश में ऊपर उठी हुई गदा लिये विचरेंगे, तब उन भीम की गदा के वेग को तथा वज्रगर्जन के समान गाण्डीव धनुष की टंकार को भी कोई नरेश नहीं सह सकता। उस समय मैं दुर्योधन के वश में होने के कारण अपने हितैषी सुहृदों की उन याद रखने योग्य बातों को याद करूंगा, जिनका पालन मैंने पहले नहीं किया।'

संजय ने कहा- 'राजन्! आपके द्वारा यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ है, जिसकी आपने जान-बूझकर उपेक्षा की है। (उसे रोकने की चेष्टा नहीं की है); वह यह है कि आपने समर्थ होते हुए भी मोहवश अपने पुत्र को कभी रोका नहीं। भगवान् मधुसूदन ने ज्यों ही सुना कि पाण्डव द्यूत में पराजित हो गये, त्यों ही वे काम्यकवन में पहुँचकर कुन्तीपुत्रों से मिले और उन्हें आश्वासन दिया। इसी प्रकार द्रुपद के धृष्टद्युम्न आदि पुत्र, विराट, धृष्टकेतु और महारथी कैकय-इन सब ने पाण्डवों से भेट की। राजन्! पाण्डवों को जूए में पराजित देखकर उन सब ने जो बातें कहीं, उन्हें गुप्तचरों द्वारा जानकर मैंने आपकी सेवा में निवेदन कर दिया था। पाण्डवों ने मिलकर मधुसूदन श्रीकृष्ण को युद्ध में अर्जुन का सारथि होने के लिये वरण किया और श्रीहरि ने ‘तथास्तु’ कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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