महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 166 श्लोक 1-17

षट्षष्ट्यधिकशततम (166) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: षट्षष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


भीष्म की अनुमति पाकर युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर को प्रस्थान

जनमेजय ने पूछा- विप्रवर! कुरुकुल के धुरन्धर वीर भीष्म जी जब वीरों के सोने योग्य बाणशय्या पर सो गये और पाण्डव लोग उनकी सेवा में उपस्थित रहने लगे, तब मेरे पूर्व पितामह महाज्ञानी राजा युधिष्ठिर ने उनके मुख से धर्मों का उपदेश सुनकर अपने समस्त संशयों का समाधान जान लेने के पश्चात दान की विधि श्रवण करके धर्म और अर्थ विषयक सारे संदेह दूर हो जाने पर जो और कोई कार्य किया हो, उसे मुझे बताने की कृपा करें।

वैशम्पायन जी ने कहा- जनमेजय! सब धर्मों का उपदेश करने के पश्चात जब भीष्म जी चुप हो गये, तब दो घड़ी तक सारा राजमण्डल पट पर अंकित किये हुए चित्र के समान स्तब्ध-सा हो गया। तब दो घड़ी तक ध्यान करने के पश्चात सत्यवतीनन्दन व्यास ने वहाँ सोये हुए गंगानन्दन महाराज भीष्म जी से इस प्रकार कहा- ‘राजन! नरश्रेष्ठ! अब कुरुराज युधिष्ठिर प्रकृतिस्थ (शान्त ओर संदेहरहित) हो चुके हैं और अपना अनुसरण करने वाले समस्त भाइयों, राजाओं तथा बुद्धिमान श्रीकृष्ण के साथ आपकी सेवा में बैठे हैं। अब आप इन्हें हस्तिनापुर में जाने की आज्ञा दीजिये।'

भगवान व्यास के ऐसा कहने पर पृथ्वीपालक गंगा के पुत्र भीष्म ने मन्त्रियों सहित राजा युधिष्ठिर को जाने की आज्ञा दी। उस समय शान्तनुकुमार भीष्म ने मधुर वाणी में राजा से इस प्रकार कहा- ‘राजन! अब तुम पुरी में प्रवेश करो और तुम्हारे मन की सारी चिन्ता दूर हो जाये। राजेन्द्र! तुम राजा ययाति की भाँति श्रद्धा और इन्द्रियसंयमपूर्वक बहुत-से अन्न और पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्त भाँति-भाँति के यज्ञों द्वारा यजन करो। पार्थ! क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहकर देवताओं और पितरों को तृप्त करो। तुम अवश्य कल्याण के भागी होओगे, अत: तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। समस्त प्रजाओं को प्रसन्न रखो। मंत्री आदि प्रकृतियों को सान्त्वना दो। सुहृदों का फल और सत्कारों द्वारा यथायोग्य सम्मान करते रहो।

तात! जैसे मन्दिर के आस-पास के फले हुए वृक्ष पर बहुत-से पक्षी आकर बसेरे लेते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे मित्र और हितैषी तुम्हारे आश्रय में रहकर जीवन निर्वाह करें। पृथ्वीनाथ! जब सूर्यनारायण दक्षिणायन से निवृत्त हो उत्तरायण पर आ जायें, उस समय तुम फिर हमारे पास आना।'

तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर पितामह को प्रणाम करके परिवार सहित हस्तिनापुर की ओर चल दिये। राजन! उन कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने राजा धृतराष्ट्र और पतिव्रता गान्धारी देवी को आगे करके समस्त ऋषियों, भाइयों, श्रीकृष्ण, नगर और जनपद के लोगों तथा बड़े-बूढ़े, मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर में प्रवेश किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में भीष्म की अनुमति विषयक एक सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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