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महाभारत: वन पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद
- युधिष्ठिर के द्वारा अन्न के लिए भगवान सर्य की उपासना और उनसे अक्षपात्र की प्राप्ति
- वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! शौनक के ऐसा कहने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने पुरोहित के पास आकर भाइयों के बीच में इस प्रकार बोले। (1)
- विप्रवर! ये वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रह हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दुख हो रहा है। (2)
- 'भगवन! मैं इनका त्याग नहीं कर सकता; परंतु इस समय मुझमें अन्न देने की शक्ति नहीं है। ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए? यह कृपा करके बताइये।' (3)
- वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धौम्य मुनि ने युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर दो घड़ी तक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात उनसे इस प्रकार कहा। (4)
धौम्य बोले- राजन! सृष्टि के प्रारम्भ काल में जब सभी प्राणी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान सूर्य ने पिता की भाँति उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों से पृथ्वी का रस[1] खींचा और दक्षिणायण में लौटकर पृथ्वी को उस रस से आविष्ट किया। (5-6)
- इस प्रकार सारे भूमण्डल में क्षेत्र तैयार हो गया, तब औषधियों स्वामी चन्द्रमा ने अन्तरिक्ष मेघों के रूप में परिणत हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जल से अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। (7)
- चन्द्रमा की किरणों से अभिषिक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता है, तब छः प्रकार के रसों से युक्त जो पवित्र औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, वही पृथ्वी में प्राणियों के लिये अन्न होता है। (8)
- इस प्रकार सभी जीवों के प्राणों की रक्षा करने वाला अन्न सूर्य रूप ही है। अतः भगवान सूर्य ही समस्त प्राणियों के पिता हैं, इसलिये तुम उन्हीं की शरण में जाओ। (9)
- जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से परम उज्ज्वल हैं, ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्या का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनों का संकट से उद्धार करते हैं। (10)
- भीम, कार्तवीर्य अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशों के तपस्या योग और समाधि में स्थित होकर भारी आपत्तियों से प्रजा को उबारा है। (11)
- धर्मात्मा भारत! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्म से शुद्ध होकर तपस्या का आश्रय ले, धर्मानुसार द्विजातियों का भरण-पोषण करो। (12)
- जनमेजय ने पूछा- भगवन! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान सूर्य की अराधना किस प्रकार की? (13)
- वैशम्पायनजी कहते हैं- राजेन्द्र! मैं सब बातें बता रहा हूँ। तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त होकर सुनो और धैर्य रखो। (14)
- महाते! धौम्य ने जिस प्रकार महात्मा युधिष्ठिर को पहले भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम बताये थे इनका वर्णन करता हूँ सुनो। (15)
- धौम्य बाले- 1. सूर्य, 2. अर्यमा, 3. भग, 4. त्वष्टा, 5. पूषा, 6. अर्क, 7. सविता, 8. रवि, 9. गभस्तिमान, 10. अज, 11. काल, 12. मृत्यु, 13. धाता, 14. प्रभाकर, 15. पृथ्वी, 16. आप, 17. तेज, 18. ख (आकाश), 19. वायु, 20. परायण, 21. सोम, 22. बृहस्पति, 23. शुक्र, 24. बुध, 25. अंगारक[2] , 26. इन्द्र, 27. विवस्वान, 28. दीप्तांशु, 29. शुचि, 30. शौरि, 31. शनैश्चर, 32. ब्रह्मा, 33. विष्णु, 34. रुद्र, 35. स्कन्द, 36. वरुण, 37. यम, 38. वैद्युताग्रि, 39. जाठराग्नि, 40. ऐन्धनाग्नि, 41. तेजःपति, 42. धर्मध्वज, 43. वेदकर्ता, 44. वेदांग, 45. वेदवाहन, 46. कृत, 47. त्रेता, 48. द्वापर, 49. सर्वमलाश्रय कलि, 50. कला काष्ठा मुहर्तरूप समय, 51. क्षपा [3] , 52. याम, 53. क्षण, 54. संवत्सरकर, 55. अश्वत्थ, 56. कालचक्र प्रवर्तक विभावसु, 57. शाश्वत पुरुष, 58. योगी, 59. व्यक्ताव्यक्त, 60. सनातन, 61. कालाध्यक्ष, 62. प्रजाध्यक्ष, 63. विश्वकर्मा, 64. तमोनुद, 65. वरुण, 66. सागर, 67. अंशु, 68. जीमूत, 69. जीवन, 70. अरिहा, 71. भूताश्रय, 72. भूतपति, 73. सर्वलोकनमस्कृत, 74. स्रष्टा, 75. संवर्तक, 76. वह्नि, 77. सर्वादि, 78. अलोलुप, 79. अनन्त, 80. कपिल, 81. भानु, 82. कामद, 83. सर्वतोमुख, 84. जय, 85. विशाल, 86. वरद, 87. सर्वधातु, 88. मनःसुपर्ण, 89. भूतादि, 90. शीघ्रग, 91. प्राणधारक, 92. धन्वतरि, 93. धूमकेतु, 94. आदिदेव, 95. अदितिसुत, 96. द्वादशात्मा, 97. अरविन्दाक्ष, 98. पिता-माता-पितामह, 99. स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, 100. मोक्षद्वारत्रिविष्टप, 101. देहकर्ता, 102. प्रशान्तात्मा, 103. विश्वात्मा, 104. विश्वतोमुख, 105. चराचरात्मा, 106. सूक्ष्मात्मा, 107. मैत्रेय, 108. करुणान्वित। ये अमित तेजस्वी भगवान सूर्य के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं, जिनका उपदेश साक्षात ब्रह्मजी ने किया है। (16-28)
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