महाभारत वन पर्व अध्याय 257 श्लोक 1-20

सप्‍तपच्‍चाशदधिकद्विशततम (257) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन के यज्ञ के विषय में लोगों का मत, कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा, युधिष्ठिर की चिन्‍ता तथा दुर्योधन की शासननीति

वैशम्‍पायन जी कहते हैं-महाराज! राजश्रेष्‍ठ! नगर में प्रवेश करते समय सूतों तथा अन्‍य लोगों ने भी अटल निश्‍चयी और महान् धनुर्धर राजा दुर्योधन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तत्‍पश्‍चात सब लोग लावा और चन्‍दनचूर्ण बिखेरकर कहने लगे- ‘महाराज! आपका यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो गया, यह बड़े सौभाग्‍य की बात है’। वहीं कुछ ऐसे लोग भी थे, जिनका मस्तिष्‍क वात रोग से विकृत था-कब क्‍या कहना उचित है, इसको वे नहीं जानते थे, अत: राजा दुर्योधन को सम्‍बोधित करके कहने लगे- ‘राजन्! आपका यह यज्ञ युधिष्ठिर के यज्ञ के समान नहीं था’। कुछ अन्‍य वायुरोगग्रस्‍त लोग राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहने लगे- ‘यह यज्ञ तो युधिष्ठिर के यज्ञ की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है’। जो राजा के सुहृद थे, वहाँ इस प्रकार बोले- ‘यह यज्ञ पिछले सब यज्ञों से बढ़कर हुआ है। ययाति, नहुष, मांधाता और भरत भी इस यज्ञ कर्म का अनुष्‍ठान करके पवित्र हो सब-के-सब स्‍वर्ग लोक में गये हैं।

भरतश्रेष्‍ठ! सुहृदों की ये सुन्‍दर बातें सुनता हुआ राजा दुर्योधन प्रसन्नतापूर्वक नगर में प्रवेश करके अपने राजभवन में गया। महाराज! उसने सबसे पहले अपने माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया। तत्‍पश्‍चात् क्रमश: भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि को तथा बुद्धिमान विदुर जी को भी मस्‍तक झुकाया। तदनन्‍तर छोटे भाइयों ने आकर भ्राताओं का आनन्‍द बढ़ाने वाले दुर्योधन को प्रणाम किया। इसके बाद वह भाइयों से घिरा हुआ अपने प्रमुख राजसिंहासन पर विराजमान हुआ। उस समय सूतपुत्र कर्ण ने उठकर महाराज दुर्योधन से इस प्रकार कहा- ‘भरतश्रेष्‍ठ! सौभाग्य की बात है कि तुम्‍हारा यह महान् यज्ञ सकुशल समाप्‍त हुआ। नरश्रेष्‍ठ! जब युद्ध में पाण्‍डव मारे जायेंगे, उस समय तुम्‍हारे द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ की समाप्ति पर मैं पुन: इसी प्रकार तुम्‍हारा अभिनन्‍दन करूँगा।' तब महायशस्‍वी महाराज दुर्योधन ने उससे इस प्रकार कहा- ‘वीर! तुम्‍हारा यह कथन सत्‍य है। नरश्रेष्‍ठ! जब दुरात्‍मा पाण्‍डव मारे जायेंगे, उस समय महायज्ञ राजसूय के समाप्‍त होने पर तुम पुन: इसी प्रकार मेरा अभिनन्‍दन करोगे’।

भरतकुलभूषण! महाराज! ऐसा कहकर दुर्योधन ने कर्ण को छाती से लगा लिया और क्रतुश्रेष्‍ठ राजसूय का चिन्‍तन करने लगा। नृपश्रेष्‍ठ दुर्योधन ने अपने पास खड़े हुए कौरवों को सम्‍बोधित करते हुए कहा- ‘कुरु कुल के राजकुमारो! कब ऐसा समय आयेगा, जब मैं समस्‍त पाण्‍डवों को मारकर प्रचुर धन से सम्‍पन्न होने वाले उस क्रतुश्रेष्‍ठ राजसूय का अनुष्‍ठान करूँगा’। उस समय कर्ण ने दुर्योधन से कहा- ‘नृपश्रेष्‍ठ! मेरी यह प्रतिज्ञा सुन लो- ‘जब तक अर्जुन मेरे हाथ से मारा नहीं जाता, तब तक मैं दूसरों से पैर नहीं धुलवाऊँगा, केवल जल से उत्‍पन्न पदार्थ नहीं खाऊँगा और आसुर व्रत (क्रूरता आदि) नहीं धारण करूँगा। किसी के भी कुछ माँगने पर ‘नहीं है’, ऐसी बात नहीं कहूँगा’। कर्ण के द्वारा युद्ध में अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा करने पर महान् धनुर्धर महारथी धृतराष्‍ट्रपुत्रोंने बड़े जोर से सिंहनाद किया। उस दिन से कौरव पाण्‍डवों को पराजित ही मानने लगे। राजेन्‍द्र! तदनन्‍तर जैसे देवराज इन्द्र चैत्ररथ नामक उद्यान-में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार श्रीमान राजा दुर्योधन ने उन नरपुंगवों को विदा करके अपने महल में प्रवेश किया। भारत! तदनन्‍तर वे सभी महाधनुर्धर वीर अपने-अपने भवन में चले गये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः