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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वसुमना और बृहस्पति के संवाद में राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन
युधिष्ठिर पूछा- भरतश्रेष्ठ पितामह! जो मनुष्यों का अधिपति है, उस राजा को ब्राह्मण लोग देवस्वरूप क्यों बताते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें। भीष्मजी ने कहा- भारत! इस विषय में जानकर लोग उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसके अनुसार राजा वसुमना ने बृहस्पतिजी से यही बात पूछी थी। कहते हैं, प्राचीन काल में बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कोसल-नरेश राजा वसुमना ने शुद्ध बुद्धि वाले महर्षि बृहस्पति से कुछ प्रश्न किया। राजा वसुमना सम्पूर्ण लोकों के हित में तत्पर रहने वाले थे। वे विनय प्रकट करने की कला को जानते थे। बृहस्पति जी के आने पर उन्होंने उठकर उनका अभिवादन किया और चरणप्रक्षालन आदि सारा विनयसम्बन्धी बर्ताव पूर्ण करके महर्षि की परिक्रमा करने के अनन्तर उन्होंने विधिपूर्वक उनके चरणों में मस्तक झुकाया। फिर प्रजा के सुख की इच्छा रखते हुए राजा ने धर्मशील बृहस्पति से राज्य संचालन की विधि के विषय में इस प्रकार प्रश्न उपस्थित किया। वसुमना बोले- महामते! राज्य में रहने वाले प्राणियों की वृद्धि कैसे होती है? उनका ह्रास कैसे हो सकता है? किस देवता की पूजा करने वाले लोगों को अक्षय सुख की प्राप्ति हो सकती है? अमित तेजस्वी कोसल नरेश के इस प्रकार करने पर महाज्ञानी बृहस्पतिजी ने शान्तभाव से राजा के सत्कार की आवश्यकता बताते हुए इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया।
बृहस्पतिजी ने कहा- महाप्राज्ञ! लोक में जो धर्म देखा जाता है, उसका मूल कारण राजा ही है। राजा के भय से ही प्रजा एक-दूसरे को हड़प नहीं लेती है। राजा ही मर्यादा का उल्लंघन करने वाले तथा अनुचित भोगों में आसक्त हो उनकी प्राप्ति के लिये उत्कण्ठित रहने वाले सारे जगत के लोगों को धर्मानुकूल शासन द्वारा प्रसन्न रखता है और स्वयं भी प्रसन्नतापूर्वक रहकर अपने तेज से प्रकाशित होता है। राजन्! जैसे सूर्य और चन्द्रमा का उदय न होने पर समस्त प्राणी घोर अन्धकार में डूब जाते हैं और एक-दूसरे को देख नहीं पाते हैं, जैसे थोडे़ जल वाले तालाब में मत्स्यगण तथा रक्षकर हित उपवन में पक्षियों के झुंड परस्पर एक-दूसरे पर बारंबार चोट करते हुए इच्छानुसार विचरण करते हैं, वे कभी तो अपने प्रहार से दूसरों को कुचलते और मथते हुए आगे वढ़ जाते हैं और कभी स्वयं दूसरे की चोट खाकर व्याकुल हो उठते हैं। इस प्रकार आपस में लड़ते हुए वे थोड़े ही दिनों में नष्टप्राय हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।
इसी तरह राजा के बिना वे सारी प्रजाएँ आपस में लड़-झगड़कर बात-की-बात में नष्ट हो जायँगी और बिना चरवाहे के पशुओं की भाँति दुःख के घोर अन्धकार में डूब जायँगी। यदि राजा प्रजा की रक्षा न करे तो बलवान् मनुष्य दुर्बलों की बहू-बेटियों को हर ले जायँ और अपने घरबार की रक्षा के लिये प्रयत्न करने वालों को मार डालें। यदि राजा रक्षा न करे तो इस जगत मे स्त्री, पुत्र, धन अथवा घनबार कोई भी ऐसा संग्रह सम्भव नहीं हो सकता, जिसके लिये कोई कह सके कि यह मेरा है, सब ओर सबकी सारी सम्पत्ति का लोप हो जाय। यदि राजा प्रजा का पालन न करे तो पापाचारी लुटेरे सहसा आक्रमण करके वाहन, वस्त्र, आभूषण ओर नाना प्रकारके रत्न लूट ले जायँ। यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्मा पुरुषों पर बारंबार नाना प्रकारके अस्त्र-शास्त्रोंकी मार पड़े और विवश होकर लोंगों को अधर्म का मार्ग ग्रहण करना पड़े। यदि राजा पालन न करे तो दुराचारी मरुष्य माता, पिता, वृ़द्ध, आचार्य, अतिथि और गरू को क्लेश पहुँचावें अथवा मार डालें।
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