महाभारत वन पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-23

एकोनपंचाशत्तम (49) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनपंचशत्तम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद


संजय के द्वारा धतराष्ट्र की बातों का अनुमोदन और धृतराष्ट्र का संताप

संजय बोला- राजन् आपने जो दुर्योधन के विषय में जो बातें कही हैं, वे सभी यथार्थ हैं। महीपते! आपका वचन मिथ्या नहीं है। महातेजस्वी वे पाण्डव अपनी धर्मपत्नी यशस्विनी कृष्णा को सभा में लायी गयी देखकर क्रोध से भरे हुए हैं और महाराज! दुःशासन तथा कर्ण की वह कठोर बातें सुनकर पाण्डव आप लोगों की निंदा करते हैं, ऐसा मुझे विश्वास है। राजेन्द्र! मैंने यह भी सुना है कि कुन्तीकुमार अर्जुन ने एकादश मूर्तिधारी भगवान् शंकर को भी अपने धनुष-बाण की कला द्वारा संतुष्ट किया। जटाजूटधारी सर्वदेवेश्वर भगवान् शंकर ने स्वयं ही अर्जुन के बल की परीक्षा लेने के लिये किरातवेष धारण करके उनके साथ युद्ध किया था। वहाँ अस्त्र प्राप्ति के लिये विशेष उद्योगशील कुरुकुलरत्न अर्जुन को उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन लोकपालों ने भी दर्शन दिया था। इस संसार में अर्जुन को छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इन लोकश्वरों का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सके।

राजन्! अष्टमूर्ति भगवान् महेश्वर भी जिसे युद्ध में पराजित न कर सके, उन्हीं वीरवर अर्जुन को दूसरा कोई वीर पुरुष जीतने का साहस नहीं कर सकता। भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र खींचकर पाण्डवों को कुपित करने वाले आप के पुत्रों ने स्वयं ही इस रोमांचकारी, अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्ध को निमन्त्रित किया। जब दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी दोनों जांघें दिखायी थीं, उस समय यह देखकर भीमसेन ने फड़कते हुए ओठों से जो बात कही थी, वह व्यर्थ नहीं हो सकती। उन्होंने कहा था- ‘पापी दुर्योधन! मैं तेरहवें वर्ष के अन्त में अपनी भयानक वेगशाली गदा से तुझ कपटी जुआरी की दोनों जांघें तोड़ डालूंगा।' सभी पाण्डव प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ हैं। सभी अपरिमित तेज से सम्पन्न हैं तथा सब को अस्त्रों का परिज्ञान है, अतः वे देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्जय हैं। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि अपनी पत्नी के अपमानजनित अमर्ष से युक्त और रोष से उत्तेजित हो समस्त कुन्तीपुत्र संग्राम में आपके पुत्रों का संहार कर डालेंगे।'

धृतराष्ट्र ने कहा- सूत! कर्ण ने कठोर बातें कहकर क्या किया, पूरा वैर तो इतने से ही बढ़ गया कि द्रौपदी को सभा में (केश पकड़कर) लाया गया। अब भी मेरे मूर्ख पुत्र चुपचाप बैठे हैं। उनका बड़ा भाई दुर्योधन विनय एवं नीति के मार्ग पर नहीं चलता। सूत! वह मन्दभागी दुर्योधन मुझे अन्धा, अकर्मण्य और अविवेकी समझकर मेरी बात भी नहीं सुनना चाहता। कर्ण और शकुनि आदि जो उसके मूर्ख मंत्री हैं, वे भी विचारशून्य होकर उसके अधिक-से-अधिक दोष बढ़ाने की ही चेष्टा करते हैं। अमित तेजस्वी अर्जुन के द्वारा स्वेच्छापूर्वक छोड़े हुए बाण भी मेरे पुत्रों को जलाकर भस्म कर सकते हैं, फिर क्रोधपूर्वक छोड़े हुए बाणों के लिये तो कहना ही क्या है? अर्जुन के बाहु-बल द्वारा चलाये हुए उनके महान् धनुष से छूटे हुए दिव्यास्त्र मन्त्रों द्वारा अभिमंत्रित बाण देवताओं का भी संहार कर सकते हैं। जिनके मंत्री, संरक्षक और सुह्द त्रिभूवननाथ, जनार्दन श्रीहरि हैं, वे किसे नहीं जीत सकते?

संजय! अर्जुन का वह पराक्रम तो बड़े आश्चर्य का विषय है कि उन्होंने महादेव जी के साथ बाहुयुद्ध किया, यह मेरे सुनने में आया है। आज से पहले खाण्डव वन में अग्निदेव की सहायता के लिये श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जो कुछ किया है, वह तो सम्पूर्ण जगत् की आंखों के सामने है। जब कुन्तीपुत्र अर्जुन, भीमसेन और यदुकुलतिलक वासुदेव श्रीकृष्ण क्रोध में भरे हुए हैं, तब मुझे यह विश्वास कर लेना चाहिये कि शकुनि तथा अन्य मंत्रियों सहित मेरे सभी पुत्र सर्वथा जीवित नहीं रह सकते।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में धृतराष्ट्र खेद विषयक उन्चासवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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