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महाभारत: उद्योग पर्व: चतुष्पंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर का भगवान श्रीकृष्ण से अपने समयोचित कर्तव्य के विषय में पूछना, भगवान का युद्ध को ही कर्तव्य बताना तथा इस विषय में युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण के वचनों का समर्थन
- वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण के पूर्वोंक्त कथन का स्मरण करके युधिष्ठिर ने पुन: उनसे पूछा- भगवान! मन्दबुद्धि दुर्योधन ने क्यों ऐसी बात कही? (1)
- ‘अच्युत! इस वर्तमान समय में हमारे लिये क्या करना उचित है? हम कैसा बर्ताव करें? जिससे अपने धर्म से नीचे न गिरें। (2)
- ‘वासुदेव! दुर्योधन, कर्ण और शकुनि के तथा भाइयों सहित मेरे विचारों को भी आप जानते हैं। (3)
- ‘विदुर ने और भीष्मजी ने भी जो बातें कही हैं, उन्हें भी आपने सुना है। विशाल बुद्धे! माता कुन्ती का विचार भी आपने पूर्णरूप से सुन लिया है। (4)
- ‘महाबाहो! इन सब विचारों को लांघकर स्वंय ही इस विषय पर बारंबार विचार करके हमारे लिये जो उचित हो, उसे नि:संकोच कहिये।' (5)
- धर्मराज का यह धर्म और अर्थ से युक्त वचन सुनकर भगवान मेघ और दुन्दुभि के समान गम्भीर स्वर में यह बात कही। (6)
- श्रीकृष्ण बोले- मैंने जो धर्म और अर्थ से युक्त हितकर बात कही है, वह छल-कपट करने में ही कुशल कुरुवंशी दुर्योधन के मन में नहीं बैठती है। (7)
- खोटी बुद्धि वाला वह दुष्ट न भीष्म की, न विदुर की और न मेरी ही बात सुनता है। वह सबकी सभी बातों को लाँघ जाता है। (8)
- दुरात्मा दुर्योधन कर्ण का आश्रय लेकर सभी वस्तुओं को जीती हुई ही समझता है। इसीलिये न यह धर्म की इच्छा रखता है और न ही यश की ही कामना करता है। (9)
- पापपूर्ण निश्चय वाले उस दुरात्मा दुर्योधन ने तो मुझे भी कैद कर लेने की आज्ञा दे दी थी; परंतु वह उस मनोरथ को पूर्ण न कर सका। (10)
- अच्युत! यहाँ भीष्म तथा द्रोणाचार्य भी सदा उचित बात नहीं कहते हैं। विदुर को छोडकर अन्य सब लोग दुर्योधन का ही अनुसरण कर लेते हैं। (11)
- सुबलपुत्र शकुनि, कर्ण और दु:शासन- इन तीनों मूर्खों ने मूढ़ और असहिष्णु दुर्योधन के समीप आपके विषय में अनेक अनुचित बातें कही थीं। (12)
- उन लोगों ने जो-जो बातें कहीं, उन्हें यदि मैं पुन: यहाँ दोहराऊँ तो इससे क्या लाभ है। थोड़े में इतना ही समझ लीजिये कि वह दुरात्मा कौरव आपके प्रति न्याययुक्त बर्ताव नहीं कर रहा है। (13)
- इन सब राजाओं में, जो आपकी सेना में स्थित हैं, जिसमें पाप और अमंगलकारक भाव नहीं है, वह सब अकेले दुर्योधन में विद्यमान हैं। (14)
- हम लोग भी बहुत अधिक त्याग करके, सर्वस्व खोकर कभी किसी भी दशा में कौरवों के साथ संधि की इच्छा नहीं रखते हैं। अत: इसके बाद हमारे लिये युद्ध ही करना उचित है। (15)
- वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर सब राजा कुछ न बोलते हुए केवल महाराज युधिष्ठिर के मुहँ की ओर देखने लगे। (16)
- युधिष्ठिर ने राजाओं का अभिप्राय समझकर भीम, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव के साथ उन्हें युद्ध के लिये तैयार हो जाने की आज्ञा दे दी। (17)
- उस समय युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा मिलते ही समस्त योद्धा हर्ष से खिल उठे, फिर तो पाण्डवों के सैनिक किलकारियां करने लगे। (18)
- धर्मराज युधिष्ठिर यह देखकर कि युद्ध छिड़ने पर अवध्य पुरुषों का भी वध करना पड़ेगा, खेद से लम्बी सांसें खींचते हुए भीमसेन और अर्जुन से इस प्रकार बोले। (19)
- जिससे बचने के लिये मैंने वनवास का कष्ट स्वीकार किया और नाना प्रकार के दुख सहन किये, वही महान अनर्थ मेरे प्रयत्न से भी टल न सका। वह हम लोगों पर आना ही चाहता है। (20)
- यद्यपि उसे टालने के लिये हमारी ओर से पूरा प्रयत्न किया गया, किंतु हमारे प्रयास से उसका निवारण नहीं हो सका और जिसके लिये कोई प्रयत्न नहीं किया गया था, वह महान कलह स्वत: हमारे ऊपर आ गया। (21)
- ‘जो लोग मारने योग्य नहीं हैं, उनके साथ युद्ध करना कैसे उचित होगा? वृद्ध गुरुजनों का वध करके हमें विजय किस प्रकार प्राप्त होगी? (22)
- धर्मराज की यह बात सुनकर शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की कही हुर्इ बातों को उनसे कह सुनाया। (23)
- वे कहने लगे- ‘राजन देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने माता कुन्ती तथा विदुरजी के कहे जो वचन आपको सुनाये थे, उन पर आपने पूर्ण रूप से विचार किया होगा। (24)
- ‘मेरा तो यह निश्चित मत है कि वे दोनों अधर्म की बात नहीं है।' (25)
- अर्जुन का यह वचन सुनकर भगवान श्रीकृष्ण भी युधिष्ठिर से मुसकराते हुए बोले- ‘हाँ‘ अर्जुन ठीक कहते हैं।' (26)
- महाराज जनमेजय! तदनन्तर योद्धाओं सहित पाण्डव युद्ध के लिये दृढ निश्चय करके उस रात में वहाँ सुखपूर्वक रहे। (27)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सैन्यनिर्वाण में युधिष्ठिर-अर्जुन-संवादविषयक एक सौचौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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