महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 203 श्लोक 1-10

त्र्यधिकद्विशततम (203) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्र्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से अतिरिक्‍त आत्‍मा की नित्‍य सत्ता का प्रतिपादन

मनु जी कहते हैं- बृहस्‍पते! बुद्धि के साथ तद्रूप हुआ जो जीव नामक चेतनतत्त्व हैं, वह इन्द्रियों द्वारा दीर्घकाल तक पहले के भोगे हुए विषयों का कालान्‍तर में स्‍मरण करता है। यद्यपि उस समय उन विषयों का इन्द्रियों से संबंध नहीं है, उनका संबंध-विच्‍छेद हो गया हैं तो भी वे बुद्धि में संस्‍कार रूप से अंकित हैं; इसलिये उनका स्‍मरण होता है। (इससे बुद्धि के अतिरिक्‍त उसके प्रकाशक चेतन की सत्‍ता स्‍वत: सिद्ध हो जाती है) वह एक समय अथवा अनेक समयों में भूत और भविष्‍य के सम्‍पूर्ण पदार्थों की, जो इस जन्‍म में या दूसरे जन्‍मों में देखे गये हैं, सामान्‍य रूप से उपेक्षा नहीं करता अर्थात उन्‍हें प्रकाशित ही करता हैं तथा परस्‍पर विलग न होने वाली तीनों अवस्‍थाओं में विचरता रहता है; अत: वह सबको जानने वाला साक्षी सर्वोत्‍कृष्ट देह का स्‍वामी आत्मा एक है। बुद्धि के जो स्‍थान-जागरित आदि अवस्‍थाएँ हैं, वे सभी सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों से विभक्‍त हैं। इन अवस्‍थाओं से संबंधित जो सुख-दु:ख आदि गुण हैं, वे परस्‍पर विलक्षण हैं। उन सबको वह आत्‍मा बुद्धि के संबंध से अनुभव करता है। इन्द्रियों में भी उस जीवात्‍मा आवेश उसी प्रकार होता है जैसे काठ में लगी हुई आग में वायु का अर्थात् वायु जैसे अग्नि में प्रविष्ट होकर अग्नि को उदीप्‍त कर देती है, इसी प्रकार आत्‍मा इन्द्रियों को चेतना प्रदान करता है। मनुष्‍य नेत्रों द्वारा आत्‍मा के रूप का दर्शन नहीं कर सकता। त्वचा नामक इन्द्रिय उसका स्‍पर्श नहीं कर सकती; क्‍योंकि वह इन्द्रियों को भी इन्द्रिय अर्थात उनका प्रकाशक है। उस आत्‍मा के स्‍वरूप का श्रवणेन्द्रिय के द्वारा श्रवण नहीं हो सकता; क्‍योंकि वह शब्‍दरहित है।

ज्ञानविषयक विचार से जब आत्‍मा का साक्षात्‍कार किया जाता है, तब उसके साधनों का बाध हो जाता है। श्रोत्र आदि इन्द्रियां स्‍वयं अपने द्वारा आपको नहीं जान सकती। आत्‍मा सर्वज्ञ और सबका साक्षी है। सर्वज्ञ होने के कारण ही वह उन सबको जानता है। जैसे मनुष्‍यों द्वारा हिमालय पर्वत का दूसरा पार्श्‍व तथा चन्‍द्रमा का पृष्‍ठ भाग देखा हुआ नहीं है तो भी इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि उनके पार्श्‍व और पृष्‍ठ भाग का अस्तित्व ही नहीं है। उसी प्रकार सम्‍पूर्ण भूतों के भीतर रहने वाला उनका अन्‍तर्यामी ज्ञानस्‍वरूप आत्‍मा अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म होने के कारण कभी नेत्रों द्वारा नहीं देखा गया है; अत: उतने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि आत्‍मा है ही नहीं। जैसे चन्‍द्रमा में जो कलंक है, वह जगत का अर्थात तद्गगत पृथ्‍वी का चिन्‍ह है; परंतु उसको देखकर भी मनुष्‍य ऐसा नही समझता कि वह जगत का अर्थात पृथ्‍वी का चिन्‍ह है। इसी प्रकार सबको 'मैं हूँ' इस रूप में आत्‍मा का ज्ञान है; परंतु यर्थाथ ज्ञान नहीं है; इस कारण मनुष्‍य उसके परायण आश्रित नहीं है। रूपवान पदार्थ अपनी उत्‍पत्ति से पूर्व और नष्ट हो जाने के बाद रूपहीन ही रहते हैं, इस नियम से जैसे बुद्धिमान लोग उनकी अरूपता का निश्‍चय करते हैं तथा सूर्य के उदय और अस्‍त के द्वारा विद्वान पुरुष बुद्धि से जिस प्रकार न दिखायी देनेवाली सूर्य की गति का अनुमान कर लेते हैं, उसी प्रकार विवेकी मनुष्‍य बुद्धिरूप दीपक के द्वारा इन्द्रियातीत ब्रह्मा का साक्षात्‍कार कर लेते हैं और इस निकटवर्ती दृश्‍य-प्रपंच को उस ज्ञानस्‍वरूप परमात्‍मा में विलीन कर देना चाहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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