महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 86 श्लोक 1-17

षडशीतितम (86) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


कार्तिकेय की उत्‍पत्ति, पालन-पोषण और उनका देव सेनापति पद पर अभिषेक, उनके द्वारा तारकासुर का वध

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! सुवर्ण का विधिपूर्वक दान करने से जो वेदोक्त फल प्राप्त होते हैं, यहाँ उनका आपने विस्तारपूर्वक वर्णन किया। सुवर्ण की उत्पत्ति का जो कारण है, वह भी आपने बताया। अब मुझे यह बताइये की वह तारकासुर कैसे मारा गया? पृथ्वीनाथ! आपने पहले कहा है कि वह देवताओं के लिये अवध्य था, फिर उसकी मृत्यु कैसे हुई? यह विस्तारपूर्वक बताइये। कुरु कुल का भार वहन करने वाले पितामह! मैं आपके मुख से यह तारक वध का सम्पूर्ण वृत्तांत सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है।

भीष्म जी ने कहा- राजेन्द्र! जब गंगा जी ने अग्नि द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भ को त्याग दिया, तब देवताओं और ऋषियों का बना-बनाया काम बिगड़ने की स्थिति में आ गया। उस दशा में उन्होंने उस गर्भ के भरण-पोषण के लिये छहों कृत्तिकाओं को प्रेरित किया। कारण यह था कि देवांगनाओं में दूसरी कोई स्त्री अग्नि एवं रुद्र के उस तेज का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं थी और ये कृत्तिकाऐं अपनी शक्ति से उस गर्भ को भलीभाँति धारण-पोषण कर सकती थीं। अपने तेज के स्थापन और उत्तम वीर्य के ग्रहण द्वारा गर्भ धारण करने के कारण अग्निदेव उन छहों कृत्तिकाओं पर बहुत प्रसन्न हुए। प्रभो! उन छहों कृत्तिकाओं ने अग्नि के उस गर्भ का पोषण किया। अग्नि का वह सारा तेज छह मार्गों से उनके भीतर स्थापित हो चुका था। गर्भ में जब वह महामना कुमार बढ़ने लगा, तब उसके तेज से उनका सारा अंग व्याप्त होने के कारण वे कृत्तिकाऐं कहीं चैन नहीं पाती थीं।

नरश्रेष्ठ! तदनन्तर तेज से व्याप्त अंग वाली उन समस्त कृत्तिकाओं ने प्रसव काल उपस्थित होने पर एक साथ ही उस गर्भ को उत्पन्न किया। छह अधिष्ठानों में पला हुआ वह गर्भ जब उत्पन्न होकर एकत्व को प्राप्त हो गया, तब सुवर्ण के समीप स्थित हुए उस बालक को पृथ्वी ने ग्रहण किया। कांतिमान शिशु अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसके शरीर की आकृति दिव्य थी। वह दिव्य सरकण्डे के वन में जन्म ग्रहण करके दिनों-दिन बढ़ने लगा। कृत्तिकाओं ने देखा वह बालक अपनी कांति से सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है। इससे उनके हृदय में स्नेह उमड़ आया और वे सौहार्दवश अपने स्तनों का दूध पिलाकर उसका पोषण करने लगीं। इसी से चराचर प्राणियों सहित त्रिलोकी में वह कार्तिकेय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्कन्धन (स्खलन) के कारण वह ‘स्कन्द’ कहलाया और गुहा में वास करने से ‘गुह’ नाम से विख्यात हुआ। तदनन्तर तैंतीस देवता दसों दिशाएँ, दिक्पाल, रुद्र, धाता, विष्णु, यम, पूषा, अर्यमा, भग, अंश, मित्र, साध्य, वसु, वासव (इन्द्र), अश्विनीकुमार, जल (वरुण), वायु, आकाश, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रहगण, रवि तथा दूसरे-दूसरे विभिन्न प्राणी जो देवताओं के आश्रित थे, सब-के-सब उस अद्भुत अग्निपुत्र ‘कुमार’ को देखने के लिये वहाँ आये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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