पंचविंशत्यधिशततम (125) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: पंचविंशत्यधिशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
लोमश जी कहते है- युधिष्ठिर! मुँह बाये हुए यमराज की भाँति भयंकर मुख वाले उस मदासुर को निगलने के लिये आते देख देवराज इन्द्र भय से व्याकुल हो गये। जिनकी भुजायें स्तब्ध हो गयी थीं, वे इन्द्र मृत्यु के डर से घबराकर बार-बार ओष्ठ प्रान्त चाटने लगे। उसी अवस्था में उन्होंने महर्षि च्यवन से कहा- ‘भृगुनन्दन! ये दोनों अश्विनीकुमार आज से सोमपान के अधिकारी होंगे। मेरी यह बात सत्य है, अत: आप मुझ पर प्रसन्न हों। आपके द्वारा किया हुआ यह यज्ञ का आयोजन मिथ्या न हो। आपने जो कर दिया, वही उत्तम विधान हो। ब्रह्मर्षे! मैं जानता हूं, आप अपना संकल्प कभी मिथ्या नहीं होने देंगे। आज आपने इन अश्विनीकुमारों को जैसे सोमपान का अधिकारी बनाया है, उसी प्रकार मेरा भी कल्याण कीजिये। भृगुनन्दन! आपकी अधिक से अधिक शक्ति प्रकाश में आवे तथा जगत में सुकन्या और इसके पिता की कीर्ति का विस्तार हो। इस उद्देश्य से मैंने यह आपके बल, वीर्य को प्रकाशित करने वाला कार्य किया है, अत: आप प्रसन्न होकर मुझ पर कृपा करें। आप जैसा चाहते हैं, वैसा ही होगा’। इन्द्र के ऐसा कहने पर भृगुनन्दन महामना च्यवन का क्रोध शीघ्र शान्त हो गया और उन्होंने देवेन्द्र को (उसी क्षण सम्पूर्ण दु:खों से) मुक्त कर दिया। राजन! उन शक्तिशाली ऋषि ने मद को, जिसे पहले उन्होंने ही उत्पन्न किया था, मद्यपान, स्त्री, जूआ और मृगया (शिकार)-इन चार स्थानों में पृथक-पृथक बांट दिया। इस प्रकार मद को दूर हटाकर उन्होंने देवराज इन्द्र और अश्विनीकुमारों सहित सम्पूर्ण देवतताओं को सोमरस से तृप्त किया तथा शर्याति का यज्ञ पूर्ण कराकर समस्त लोकों में अपनी अद्भुत शक्ति को विख्यात करके वक्ताओं में श्रेष्ठ च्यवन ऋषि अपनी मनोनुकूल पत्नी सुकन्या के साथ वन में विहार करने लगे। युधिष्ठिर! यह जो पक्षियों के कलरव से गूंजता हुआ सरोवर सुशोभित हो रहा है, महर्षि च्यवन का ही है। तुम भाइयों सहित इसमें स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण करो। भूपाल! भरतनन्दन! इस सरोवर का और सिकताक्ष तीर्थ का दर्शन करके सैन्धवारण्य में पहुँचकर वहाँ की छोटी-छोटी नदियों के दर्शन करना। महाराज! यहाँ के सभी तालाब में जाकर जल का स्पर्श करो। भारत! स्थाणु (शिव) के मन्त्रों का जप करते हुए उन तीर्थों में स्नान करने से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होंगी। नरश्रेष्ठ! यह त्रेता और द्वापर की संधि के समय प्रकट हुआ तीर्थ है। युधिष्ठिर! यह सब पापों का नाश करने वाला तीर्थ दिखायी देता है। इस सर्वपापनाशन तीर्थ में स्नान करके तुम शुद्ध हो जाओगे। इसके आगे आर्चीक पर्वत है, जहाँ मनीषी पुरुष निवास करते हैं। वहाँ सदा फल लगे रहते हैं और निरन्तर पानी के झरने बहते रहते हैं। इस पर्वत पर अनेक देवताओं के उत्तम स्थान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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