महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-15

सप्तम (7) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र के द्वारा राजनीति का उपदेश

धृतराष्ट्र ने कहा- "नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम्हें संधि और विग्रह पर भी दृष्टि रखनी चाहिये। शत्रु प्रबल हो तो उसके साथ संधि करना और दुर्बल हो तो उसके साथ युद्ध छेड़ना, ये संधि और विग्रह के दो आधार हैं। इनके प्रयोग के उपाय भी नाना प्रकार के हैं और इनके प्रकार भी बहुत हैं। कुरुनन्दन! अपनी द्विविध अवस्था-बलाबल का अच्छी तरह विचार करके शत्रु से युद्ध या मेल करना उचित है। यदि शत्रु मनस्वी है और उसके सैनिक हष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट हैं तो उस पर सहसा धावा न करके उसे परास्त करने का कोई दूसरा उपाय सोचे। आक्रमण काल में शत्रु की स्थिति विपरीत रहनी चाहिये अर्थात उसके सैनिक हष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट नहीं होने चाहिये। राजेन्द्र! यदि शत्रु से अपना मान मर्दन होने की सम्भावना हो तो वहाँ से भागकर किसी दूसरे मित्र राजा की शरण लेनी चाहिये। वहाँ यह प्रयत्न करना चाहिये कि शत्रुओं पर कोई संकट आ जाये या उनमें फूट पड़ जाय, वे क्षीण और भयभीत हो जायँ तथा युद्ध में उनकी सेना नष्ट हो जाये। शत्रु पर चढ़ाई करने वाले शास्त्रविशारद राजा को अपनी और शत्रु की त्रिविध शक्तियों पर भली-भाँति विचार कर लेना चाहिये। भारत! जो राजा उत्साह-शक्ति, प्रभुशक्ति और मन्त्रशक्ति में शत्रु की अपेक्षा बढ़ा-चढ़ा हो, उसे ही आक्रमण करना चाहिये। यदि इसके विपरित अवस्था हो तो आक्रमण का विचार त्याग देना चाहिये।

प्रभो! राजा को अपने पास सैनिक बल, धन बल, मित्र बल, अरण्य बल, भृत्य बल और श्रेणी बल का संग्रह करना चाहिये। राजन! इनमें मित्र बल और धन बल सबसे बढ़कर है। श्रेणी बल और भृत्य बल ये दोनों समान ही हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। नरेश्वर! चारबल (दूतों का बल) भी परस्पर समान ही है। राजा को समय आने पर अधिक अवसरों पर इस तत्त्व को समझे रहना चाहिये। महाराज! कुरुनन्दन! राजा पर आने वाली अनेक प्रकार की आपत्तियाँ भी होती हैं, जिन्हें जानना चाहिये। अतः उनका पृथक-पृथक वर्णन सुनो।

राजन! पांडुनन्दन! उन आपत्तियों के अनेक प्रकार के विकल्प हैं। राजा साम आदि उपायों द्वारा उन सबको सामने लाकर सदा गिने। परंतप नरेश! देश काल की अनुकूलता होने पर सैनिक बल तथा राजोचित गुणों से युक्त राजा अच्छी सेना साथ लेकर विजय के लिये यात्रा करे। पांडुनन्दन! अपने अभ्युदय के लिये तत्पर रहने वाला राजा यदि दुर्बल न हो और उसकी सेना हष्ट-पुष्ट हो तो वह युद्ध के अनुकूल मौसम न होने पर भी शत्रु पर चढ़ाई करे। शत्रुओं के विनाश के लिये राजा अपनी सेनारूपी नदी का प्रयोग करे। जिसमें तरकस ही प्रस्तरखण्ड के समान हैं, घोड़े और रथरूपी प्रवाह शोभा पाते हैं, जिसका कूल-किनारा ध्वजरूपी वृक्षों से आच्छादित है तथा पैदल और हाथी जिसके भीतर अगाध पंक के समान जान पड़ते हैं। भारत! युद्ध के समय युक्ति करके सेना का शकट, पद्म अथवा वज्र नामक व्यूह बना ले। प्रभो! शुक्राचार्य जिस शास्त्र को जानते हैं, उसमें ऐसा ही विधान मिलता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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